Wednesday, June 27, 2012

अंचल किताब है, अंचल कबीर है


अंचल की परती 

गर्मी का पारा चढ़ने को था तभी अंचल का दरवाजा कथावाचक के लिए खुलता है। महानगरीय जीवन की रेलगाड़ी पटरी से उतरकर अंचल के पगडंडी पर आ जाती है और आपका कथावाचक साधो-साधो करने लगता है। एक जीवन में कई जीवन जीने की तरह है बदलाव और इसी बदलाव को केंद्र में रखकर आपका कथावाचक अंचल की कथाओं में ढेर सारे कोण खोजने बैठ गया है, खुट्टा गाड़कर और पलथी मारकर। 

कथावाचक के लिए अंचल एक किताब है। यह शब्द लिखते हुए उसे अभय कुमार दुबे के संपादन में प्रकाशित किताब-
राजनीति की किताब-रजनी कोठोरी का कृतित्व के पन्ने मन में पलटने लगते हैं। किताब में ढेर सारे संवाद की तरह ही अंचल में भी कथावाचक को संवाद मिल रहे हैं। बतकही का अंदाज उसे नमक- मिर्च की माफिक लग रहा है।

सत्तू, पानी और नमक के संग मिर्च के जायकेदार नाश्ते की तरह अंचल उसे खींचता आया है और देखिए न जब वह अपने अंचल की ओर लौटता है तो सत्तू-पानी-नमक-मिर्च का व्याकरण खत्म हो चुका होता है। पलायन की समस्या से जूझ रहे अंचल की पीड़ा उसके भीतर टीस मारने लगती है।

खैर, पलायन को लेकर बतकही फिर कभी। कथावाचक को अंचल कबीर की तरह भी लगता रहा है। पहले उसे अंचल में कबिराहा मठ मिलता था लेकिन अब नहीं। इसके बावजूद अंचल के जीवन को जी रहे मनुखों में उसे दर्शन-धर्म-आस्था-वैराग्य-सूफी-बकबकी-ढिठपन सबकुछ मिल रहा है। कई लोग ऐसे मिले जिनकी वाणी में उसे जीवन-दर्शन के सारे अध्याय पढ़ने को मिल गए।

आसाराम बापू टाइप प्रवचन देने वाले बाबाओं को इन  जैसे लोगों से संवाद स्थापित करना चाहिए। हालांकि लोगबाग को समझने में अभी कथावाचक को खूब वक्त देना होगा।
अंचल में लोगों से सीधा संवाद स्थापित करन के लिए कथावाचक हर दिन लंबी दूरी तय करता है। इन दूरियों को पाटने के लिए गर्मी की दोपहरिया सखी के माफिक सहायता कर रही है। इस बीच मेघ का रंग भी बदलने लगा है।

आसमान में बादल घुमरने लगे हैं। मानसून की झूठी आहट परेशान भी करती है। लोगबाग के पास इसको लेकर ढेर सारे मुहावरे हैं। इन डाकवचनों पर भी कथावाचक कान जमाए है। बातों की लंबी सूची बनती जा रही है। हर दिन नए लोग मिलते हैं, नई बातें सामने आ जाती है।

भूमि, फसल और यादों की दुनिया अंचल में आकर परेशान भी करती है लेकिन यह परेशानी तो जीवन का अभिन्न अंग है। कथावाचक लंबी सांस लेता है और खिड़की से बाहर आसमां को निहारने लगता है। तारे टिमटिमा रहे हैं। मेघ ऐसे लग रहे हैं मानो किसी ने हल चला दिया हो, कुछ टुकड़े सफेद तो कुछ चटख नीले लग रहे हैं और बीच-बीच में तारों की माला उसे तिलस्मी लगने लगी है।

कथावाचक को इसी बीच मंगल और बुध को अंचल में लगने वाला हटिया "जीवन का चटखदार रंग" लगने लगा है। हटिया ग्राम्य जीवन का रंगरेज है, हर कोई इसमें अपने हिस्से का रंग खोजता है और यकीन मानिए हर किसी को उसका रंग मिल ही जाता है।

इन सबके संग कथावाचक अंचल में पांव जमाने में लगा है, देखते हैं बात कहां तक बनती है। तभी अनायस उसे  गुलजार का लिखा याद आने लगता है-
"सोचा था तुमसे मिले तो पांव ज़मीन पे पड़ेंगे /यह क्या पता था फिर से ख्वाबों में उड़ने लगेंगे "

5 comments:

Rahul Singh said...

बढि़या कथा.

Sadan Jha said...

बहुत अच्छा. कभी किसी हटिया पर ठहर कर आवा जाही का संगीत भी सुनाइये. एक जमाना था बुकानन साहब ने पुरनिया जिले के मंडियों का जिक्र किया था. अनाज, जींस और मवेशी.

Ramakant Singh said...

BEAUTIFUL NARRATION

Ramakant Singh said...
This comment has been removed by the author.
Ramakant Singh said...
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