Saturday, December 17, 2011

लोकगीतों के बारे में


पिछले तीन दिनों से बुखार की चपेट में हूं, इसलिए ऑफिस के काम-काजों से मुक्त हूं। अभी रेणु रचनावली पढ़ रहा हूं। फणीश्वर नाथ रेणु की कई ऐसी रचनाएं पढ़ने को मिल रही है, जिसके बारे में पता नहीं था। यह किताब पांच खंड में है। खैर, यह पोस्ट लोकगीत को लेकर है। रेणु रचनावली से साभार। आप पढिए और जानिए लोकगीतों के बारें में...
-गिरीन्द्र

मैं
लोकगीतों के गोद में पला हूं। इसलिए हर मौसम में मेरे मन के कोने में उस ऋतु के लोकगीत गूंजते रहते हैं। मैं कहीं भी हूं- इन लोकगीतों की स्मृति ध्वनियां मुझे अपने गांव में कुछ क्षण के लिए पहुंचा देती है।
अगहन शुरु होते ही पके हुए धन खेतों की अगहनी सुगंध के लिए मन मचलता है। अलाव तापते हुए खलिहान में दवनी को आए हुए लोगों से बातें करनी की बड़ी इच्छा होती है। ढलती हुई लंबी रात, भुरुकुवा (शुक्र) तारा उगते ही नींद उचट जाती है।

खलिहान में दवनी शुरु हो गई।
प्रातकी गीत की पहली कड़ी मंड़रा रही है। पवित्र धुन प्रातकी जिसे अगहन से माघ तक भुरुकुवा तारा उगने के बाद गाते हैं। 
भोर को गाए जाने वाले गीतों में
प्रातकी के बाद बिकय की याद आती है। श्रावणी पूर्णिमा से आरंभ करके कृष्णाष्टमी की भोर में खोल करताल बजाकर यह बिकय गीत गाया जाता है।

काली घटाओं में लुका छिपा चांद भादो के भरे हुए पोखर तलाब में तैरता हुआ दिखाई पड़ता है और फिर तुरंत ही झड़ी लग जाती है। ऐसे क्षणों में
बिकय गानेवालों का मूलगैन अलाप उठता है। 
लोकगीतों में ऐसे भी गीत हैं जिनके गाने का समय वर्ष में सिर्फ एक घंटा निर्धारित है। होली और फगुआ गाने फागुन की अंतिम घडियों तक और चैत के प्रथम क्षणों में चैती शुरु करने से पहले एक घंटा।

फागुन चैत की संधि बेला में गाए जाने वाले इस गीत को
बसकर कहते हैं। इस गीत में फागुन की मस्ती की हल्की खुमारी और चैती की मीठी मीठी उदासी मिली जुली रहती है।

{‘कवि रेणु कहेसे – साभार: रेणु रचनावली-5 , पृष्ठ संख्या- 476 }

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