झमाझम बारिश, कीचड़ और कंक्रीट के सड़क, ये सबकुछ कई महीने से उसके ख्याल में आ रहे थे, मानो किसी राग में कोई सूफी संगीत सुना रहा हो। वह भींगते हुए शहर में दाखिल होता है और फिर भींगते हुए अपने रुट की ओर भाग जाता है। घर वाले असमंजस में कि क्या हो गया है, आते ही गांव की ओर। पहली बार वह घर के किसी बडे मेंबर के बिना अकेले ही निकल पड़ा रुट की ओर। मंजिल का पता था, रास्ते भी तय थे, तो सोचा सहारा क्यूं ? अबकी अपनी नजर से रुट को देखने की प्लानिंग थी उसकी। इसमें किसी तरह का अवरोध सहन करने की क्षमता उसमें नहीं थी।
सड़क बेहतर नजर आ रही थी, मोटरसाइकिल को रफ्तार पकड़ने में किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई। वह अपने रूट में बीच दोपहरिया में दाखिल होता है। कामत के बजाय पहले घर फिर संथाली टोला, यही थी उसकी प्लानिंग। चापाकल की चपचप आवाज, प्यासी नहर, खेतों में लहलहाते फसल की जगह पर पांच साल में काटकर बेच देने वाली लकड़ियां...ये सब सामने थे और उसके मन का नायक इसे एकटक देखे जा रहा था। इन सबके बीच इंटरनेट का विशाल वेब साम्राज्य एकदम छोटा लग रहा था।
उसे अहसास होने लगा था कि गांव में अब मशीनी कोलाहाल ज्यादा सुनाई देना लगा है। कभी संपनी और बैलगाड़ी से पटा रहने वाला उसका अंचल अब बोलेरो, मारुति आल्टो और ढेर सारी दुपहिया गाड़ी से गुलजार दिख रहा था। नहर के उस छोर से छोर तक कंक्रीट की सड़कें, सरकारी इमारत कुछ औऱ ही कहानी बयां कर रही थी। मन के नायक को वह जो तस्वीर दिखाने आया था, उसके कई और पहलू सामने आने लगे थे। उसे मन के एक कोने से धीमी आवाज में सुनाई दी- मन समझती हैं न आप...।
अभी तक वह इसी मन से अंचल को समझने की कोशिश कर रहा था। यह आवाज उसके भीतर की नायिका की थी और नायक तो वह खुद था ही। नायक अंचल में गुलाब की खेती और बच्चों को पढ़ाने के लिए जी-जान लगाए था वहीं नायिका नहर, तालाब. धार और घाट की कहानियों को जमा करने में जुटी थी। बाहर से शायद हर किसी को यह विरोधाभाष लगे लेकिन नायक और नायिका की म्यूचअल अंडरस्टेडिंग अपने आप में मिसाल थी।
उन दोनों को समझ कर ऐसा लग रहा था मानो नायिका किसी सुरती राय की खोज में जुटी हो, जो उसे घाट-बाट की कहानी सुनाए, महुआ घटवारिन के बारे में बताए। वह इस रुप में एक रुमानी कहानी लिखना चाहती थी, जिसमें रोमांस हो। अंचल की उस विशाल परती जमीन के पास उस पुराने घाट की कथा हो..जहां चांदनी रात में सफेद रंग की साड़ी में एक महिला आती है और फिर सबकुछ देख चुपचाप आगे निकल जाती है। वह डर में भी रोमांस खोजती है।
उधर, मन का नायक गांव में रहकर कुछ करना चाहता था, ऐसा काम जिससे गांव की तकदीर बदले। इतने लंबे अंतराल के बाद यहां आने पर वह ढेर सारी बातें सोचने लगा, क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए? नायक को परंपराओं को तोड़ने में मजा आता है, एक ढर्रे पर चलते रहने से उसे ऐसा लगता है मानो तलवे में कोई कील चुभ गई हो। एक दर्द जो उसे बरसों से तंग कर रही थी, आज वह उसी दर्द से मिलने की इच्छा जाहिर करता है। तत्सम दुनिया से कहीं बेहतर उसे तद्भव संसार लगता है, जिसमें व्याकरण की गुंजाइश न के बराबर हो। उस तपती दोपहर में जब सूरज रूद्र रूप धारण किए था, नायक चल पड़ता है, नहर के उस पार।
कई एकड़ जमीन, जिसे वह धरती कहता है, अब लकड़ियों से पट गए हैं। उसे लुधियाना से कोई ४० किलोमीटर दूर हलवाड़ा गांव की याद आती है, ऐसे ही लकड़ियों से पटे खेत उसने वहां देखे थे, जिसे महज ५ से १० साल के भीतर काटकर बेचकर किसान हुंडई की कोई कार खरीद लेता है तो कोई होंडा सिटी।
नायक, वर्तमान में दाखिल होता है। उसकी मन की नायिका उसी के कंधे पे हाथ धरे खड़ी मिलती है, मुस्कुराती हुई। वह चहकती हुई कहती है, मुझे सुरती राय मिल गया, वह आज शाम हमें घाटों की कहानी सुनाएगा, कामतों के बारे में सुनाएंगे....उसके पास रिकार्ड हैं। नायक भी मुस्कुराता है, उसे नायिका के चेहरे पे एक लौ दिखती है, वह सोचता है, कि शायद इसी रोशनी में उसे अंचल का चेहरा दिख जाए। उसे मन के एक कोने से फिर से मन समझती हैं न आप... की आवाज सुनाई दी।
सड़क बेहतर नजर आ रही थी, मोटरसाइकिल को रफ्तार पकड़ने में किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई। वह अपने रूट में बीच दोपहरिया में दाखिल होता है। कामत के बजाय पहले घर फिर संथाली टोला, यही थी उसकी प्लानिंग। चापाकल की चपचप आवाज, प्यासी नहर, खेतों में लहलहाते फसल की जगह पर पांच साल में काटकर बेच देने वाली लकड़ियां...ये सब सामने थे और उसके मन का नायक इसे एकटक देखे जा रहा था। इन सबके बीच इंटरनेट का विशाल वेब साम्राज्य एकदम छोटा लग रहा था।
उसे अहसास होने लगा था कि गांव में अब मशीनी कोलाहाल ज्यादा सुनाई देना लगा है। कभी संपनी और बैलगाड़ी से पटा रहने वाला उसका अंचल अब बोलेरो, मारुति आल्टो और ढेर सारी दुपहिया गाड़ी से गुलजार दिख रहा था। नहर के उस छोर से छोर तक कंक्रीट की सड़कें, सरकारी इमारत कुछ औऱ ही कहानी बयां कर रही थी। मन के नायक को वह जो तस्वीर दिखाने आया था, उसके कई और पहलू सामने आने लगे थे। उसे मन के एक कोने से धीमी आवाज में सुनाई दी- मन समझती हैं न आप...।
अभी तक वह इसी मन से अंचल को समझने की कोशिश कर रहा था। यह आवाज उसके भीतर की नायिका की थी और नायक तो वह खुद था ही। नायक अंचल में गुलाब की खेती और बच्चों को पढ़ाने के लिए जी-जान लगाए था वहीं नायिका नहर, तालाब. धार और घाट की कहानियों को जमा करने में जुटी थी। बाहर से शायद हर किसी को यह विरोधाभाष लगे लेकिन नायक और नायिका की म्यूचअल अंडरस्टेडिंग अपने आप में मिसाल थी।
उन दोनों को समझ कर ऐसा लग रहा था मानो नायिका किसी सुरती राय की खोज में जुटी हो, जो उसे घाट-बाट की कहानी सुनाए, महुआ घटवारिन के बारे में बताए। वह इस रुप में एक रुमानी कहानी लिखना चाहती थी, जिसमें रोमांस हो। अंचल की उस विशाल परती जमीन के पास उस पुराने घाट की कथा हो..जहां चांदनी रात में सफेद रंग की साड़ी में एक महिला आती है और फिर सबकुछ देख चुपचाप आगे निकल जाती है। वह डर में भी रोमांस खोजती है।
उधर, मन का नायक गांव में रहकर कुछ करना चाहता था, ऐसा काम जिससे गांव की तकदीर बदले। इतने लंबे अंतराल के बाद यहां आने पर वह ढेर सारी बातें सोचने लगा, क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए? नायक को परंपराओं को तोड़ने में मजा आता है, एक ढर्रे पर चलते रहने से उसे ऐसा लगता है मानो तलवे में कोई कील चुभ गई हो। एक दर्द जो उसे बरसों से तंग कर रही थी, आज वह उसी दर्द से मिलने की इच्छा जाहिर करता है। तत्सम दुनिया से कहीं बेहतर उसे तद्भव संसार लगता है, जिसमें व्याकरण की गुंजाइश न के बराबर हो। उस तपती दोपहर में जब सूरज रूद्र रूप धारण किए था, नायक चल पड़ता है, नहर के उस पार।
कई एकड़ जमीन, जिसे वह धरती कहता है, अब लकड़ियों से पट गए हैं। उसे लुधियाना से कोई ४० किलोमीटर दूर हलवाड़ा गांव की याद आती है, ऐसे ही लकड़ियों से पटे खेत उसने वहां देखे थे, जिसे महज ५ से १० साल के भीतर काटकर बेचकर किसान हुंडई की कोई कार खरीद लेता है तो कोई होंडा सिटी।
नायक, वर्तमान में दाखिल होता है। उसकी मन की नायिका उसी के कंधे पे हाथ धरे खड़ी मिलती है, मुस्कुराती हुई। वह चहकती हुई कहती है, मुझे सुरती राय मिल गया, वह आज शाम हमें घाटों की कहानी सुनाएगा, कामतों के बारे में सुनाएंगे....उसके पास रिकार्ड हैं। नायक भी मुस्कुराता है, उसे नायिका के चेहरे पे एक लौ दिखती है, वह सोचता है, कि शायद इसी रोशनी में उसे अंचल का चेहरा दिख जाए। उसे मन के एक कोने से फिर से मन समझती हैं न आप... की आवाज सुनाई दी।
शीर्षक तीसरी कसम से
ज़िन्दगी के रास्तों का कोई रूट चार्ट नहीं. बस की कदम निकल पड़ते हैं मंजिलों की तलाश में. नायक और नायिका सब हमारे भीतर हैं..इस तरह जीवन को समझना कितना आसान है. गिरीन्द्र, आपने एक नया ढंग दिया है सोचने का...सुन्दर..!
ReplyDeleteवाह...अद्भुत पोस्ट...सीधे दिल से कही गयी जो दिल तक पहुंची...
ReplyDeleteनीरज
बहुत सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDeleteदिलचस्प .मै भी तीसरी कसम की खातिर इधर आया था ...
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