Friday, June 10, 2011

मोहब्बत का हासिल है दीवानगी


एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
 
गोल तिपाही के ऊपर थी 
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
- गुलजार 
 
आज फिर गुलजार के सहारे बहकने जा रहा हूं। कभी कभी लगता है कि हमारा मानस जिससे प्रभावित होता है, हम उसी में डूबते चले जाते हैं। यहां डूबने की चाहत हमेशा बनी रहती है। गुलजार और रेणु हमारे लिए ऐसे ही हैं। इन्हें पढ़ते हैं और फिर इन्हीं के आंगन के आसपास दो गज जमीन लेकर जिंदगी के धूप और छांव में लुका-छुपी का खेल शुरु कर देते हैं। जिंदगी तब नज्म बन जाती है, और हम उस दो गज में पूरी कायनात को देखने लगते हैं।

ऐसे में एक कथा की शुरुआत होती है
, जिसमें शहर और गांव की दूरी खत्म हो जाती है। मोहब्बत और दुश्मनी के बीच आदमी की कहानी मोड़ लेती है। हम कुछ पलों के लिए ठहर जाते हैं। ठहराव यहां कई मायनों में जिंदगी की व्याख्या करने लगती  है।

हम ठहराव के विश्लेषण में वक्त जाया नहीं करते
, बस जिंदगी को निहारते रहते हैं। अपना मन कविता करने लगता है। आप पागलपन कह सकते हैं लेकिन मन इसे मुक्ति पथ समझता है। जिंदगी की कथा बस चलती रहती है, हमारी आंखें टकटकी लगाए देखती रह जाती है।

2 comments:

  1. बहक ही रहे थे तो जरा जम के बहकते ये क्या कि बस नाम किया...

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  2. @ प्रतिभा कटियार- जी, बहकने के प्रोसेस में हूं, आशा है जल्द ही पूरी तरह बहक जाउंगा फिर शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।

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