Wednesday, April 27, 2011

बल्‍लीमारान से फेसबुक

महेश शुक्ला, फेसबुक से साभार
शब्द से लगाव है, यही वह चीज है जिसके जरिए हम हरकुछ अभिव्यक्त कर देते हैं। गुस्सा, प्यार, कमीनापन सबकुछ। दिल की बात दिल में ही नहीं रह जाए,शायद इसी के लिए शब्द बने, फिर वाक्य और मुक्कमल साहित्य।

शायरी, नज्म,कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, फिल्म, इन सबके साथ शब्द जुड़ा है। शब्द भ्रूण है, जिसमें ब्रह्मांड रचा बसा है। फेसबुक पर इन दिनों शब्दों के जरिए ढेर सारे प्रयोग हो रहे हैं। कोई प्रेम कहानियां बांच रहा है, कोई कथेतर समाज रच रहा है तो कुछ इन्सटेंट (त्वरित) शायर बन रहे हैं। ऐसे ही  एक शायर हैं महेश शुक्ला  (तस्वीर में  देखिए)। वे अक्सर अपने वॉल-पोस्ट पर शब्दों का ताना-बाना रचते मिल जाते हैं। खबरनवीशी की दुनिया  में रहते हुए वे शब्दों से खेलने में माहिर तो हैं ही साथ ही शायरी में अच्छी करने लगे हैं। मैं विगत 11 महीने से उन्हें जानता हूं लेकिन उनकी शायरी से मुलाकात पिछले महीने से हुई है, यह मुलाकात कब यारी-दोस्ती में बदल गई, पता ही नहीं  चला। जब उन्होंने अपने वॉल-पोस्ट पर लिखा-

"तेरी जीत पर हमें फक्र है ए दोस्त, पर इस दिल का क्या करें जो अपनी हार पे रोता बहुत है....."

इसे पढ़ने के बाद से ही मैं उनके शब्दों में गोते लगाने लगा। यहां नशा जैसे शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूं लेकिन कुछ-कुछ ऐसा ही अनुभव करने लगा। 
 
महेश जी के इस इन्सटेंट शायरी को पढ़ते हुए कोई भी अपने दिल के और भी करीब पहुंच सकता है। दरअसल इस भागम-भाग जिंदगी में हम अपने लिए वक्त नहीं निकालते हैं, वक्त अपने पेशे को कुर्बान करने वाली हमारी पीढि़ के लिए ऐसे शब्द ही सोचने को मजबूर करते रहते हैं।  महेश जी को पढ़ने के तुरंत बाद मुझे अविनाश याद आने लगते हैं। उनकी एक कविता है- हालांकि अब भी लोग काम कर रहे हैं.. इसमें एक जगह अविनाश कहते हैं-

"वहां जहां जीवित लोग काम करते हैं
मुर्दा चुप्पी सी लगती है जबकि ऐसा नहीं कि लोगों ने बातें करनी बंद कर दी हैं
उनके सामने अब भी रखी जाती हैं चाय की प्यालियां
और वे उसे उठा कर पास पास हो लेते हैं
एक दूसरे की ओर चेहरा करके
देखते हैं ऐसे जैसे अब तक देखे गये चेहरे आज आखिरी बार देख रहे हों"

सच कहूं तो अविनाश की शब्दों की ललक, खोजने की छटपटाहट मुझे कभी-कभी महेश जी के इनसटेंट शायरी में भी मिलती है। उनका गुलजार वॉल-पोस्ट एक जगह छटपटाता दिखता है और ऐसे में शब्द उनके लिए एक नया टूल बन जाते हैं। वे कहते हैं-

"कभी मेरी आहट से चहक उठते थे जो दरो-दीवार, आज मेरे आने पर भी उनमें कोई रौनक नहीं, एक वो वक्त था, जब सपनों में भी होती थी बातें, आज दीदार होने पर भी आंखों में कोई हरकत नहीं।"

जिंदगी में जीत के मायने हैं, इसे कोई नकार नहीं सकता। हम जीतने के लिए जिंदगी दांव पे लगा देते हैं, आगे बढ़ने के लिए कतार के पहले लोग को कुचलने में भी परहेज नहीं करते लेकिन दिल का मामला कुछ और है। यहां महेश जी फिर से दिल की जीत और हार के मायने को अलग परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। वे कहते हैं-

"जीतने के लिए लोग दिल हार जाते हैं, पर कुछ बाजीगर ऐसे भी हैं यहां जो जज्बातों पे भी दांव लगाते हैं..."
 

दरअसल शायरी और गजल से मेरा इश्क पुराना है लेकिन इसे हर वक्त जवान बनाए रखने में दिल्ली के बल्लीमारान का सबसे बड़ा हाथ है। सन 2006 की बात है, वह साल का आखिरी महीना था। दिल्ली में गालिब पर एक समारोह था, बल्‍लीमारान में। तब वहां एक मुशायरा हुआ।

मुशायरे में मुनव्‍वर राना, गोपालदास नीरज, बाल कवि बैरागी, निदा फाजली सब थे । मेरे एक अजीज दोस्त शाहनवाज भाई हमें वहां ले गए थे, वे मुशायरे के बीच-बीच में मुझे कुछ  शब्दों के अर्थ भी बताते रहते थे, वहीं जाना की ऊर्दू जाने बगैर ये जवानी तो बेदम है दोस्त। मुशायरे में भारी भीड़ जुटी थी।

श्रोताओं के बीच अविनाश भी थे लेकिन तबतक हमारी चेहरा टू चेहरा मुलाकात नहीं हुई थी। बाद में उन्होंने इस मुशायरे का एक जगह जिक्र भी किया था, चले तो उसको जमाने ठहर के देखते हैं.. के शीर्षक से।

अब फिर से बल्लीमरान से फेसबुक पर लौटते हैं। यहां जब  महेश जी लिखते हैं कि "अब तो वो हर पल का हिसाब मांगते  है.." तो दिल्ली विश्वविद्यालय के गलियारे याद आने लगते  हैं, आर्ट्स  फेकेल्टी का वो फोटोस्टेट कार्नर आंखों के  सामने नाचने लगता है, रवीश कुमार का लप्रेक (लघु प्रेम कथा) भकभकाने लगता है। मुझे लगता है कि महेश जी यूं ही नहीं कहते हैं -

"दी थी जो खुशियां उन्होंने उस वक्त, आज वो उनकी कीमत बेहिसाब मांगते हैं..."

आप भी कुछ समय के लिए शब्दों में खो जाइए, डुबकी लगाइए। महेश जी को फेसबुक पर देखिए शब्दों के जरिए। मैं जरा पता लगाता हूं कि वे क्यूं कहते हैं-
 

" जिंदगी को जितना करीब से देखा,उतना ही उससे दूर हो गए , जितना उलझनों को समेटना चाहा, न जाने क्यों उतने ही मजबूर हो गए..."

7 comments:

  1. Anonymous9:48 AM

    girindra nathji, a good write-up on Mahes Shukla and contemperaries. Keep up.
    oppareek43 via jagran junction

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  2. Anonymous9:50 AM

    Via fecbook Pramod Kumar Sorout
    dil ko chhoo jaane wali baatein bahut hi saral tareeke se pesh ki hai mahesh jii ne.....waah

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  3. Anonymous9:50 AM

    Via Facebook Navalendu Jha
    Log bas sarak hi paar karte hai ..is ummed me ki us paar shaayed kuch behtar ho..bas paar karte hai sarak.Koi us taraf se jo aa chuke hai,unse nahi puchta ki ...us paar duniya kaise hai..bas is paar se us paar,aur us paar se is paar..log sarak par karte rahte hai.

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  4. Anonymous9:51 AM

    Via Facebook Deepak Mishra
    Mahesh Sir wakai shandar hain.....aur unki shayari unse bhi zyada

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  5. Anonymous9:53 AM

    महेश जी के बहाने आपने अच्छी चर्चा की है.
    राजेश शर्मा

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  6. Anonymous12:13 AM

    Hame to mahesh ji ke is vidha ke bare me pata he nahe tha...jha ji dhanyavad

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  7. Anonymous12:13 AM

    Hame to mahesh ji ke is vidha ke bare me pata he nahe tha...jha ji dhanyavad

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