Friday, April 22, 2011

उस पार से इस पार-2

गंताक से आगे-

पान-माछ-मखान, ये तीन मिथिला की पहचान। हम सब बचपन से सुनते आ रहे थे। मधुबनी जिले के इशाहपुर गांव में भी हमारे घर के सामने एक बड़ा सा पोखर है। पोखर में माछ (मछली) भी है और मखान की खेती भी होती है। नाटक का पर्दा गिरता है और हम वर्तमान में दाखिल होते हैं। पूर्णिया जिला मुख्यालय से कुल जमा 25 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद चनका गांव में भी घर के सामने एक पोखर है, लेकिन इशाहपुर जितना बड़ा नहीं।

इशाहपुर में यदि पोखर एक संस्कृति है तो चनका में पोखर एक व्यवसाय। मछलियां यहां हटिया जाने के लिए पाई जाती है, या फिर छुट्टिय़ों में बच्चों के लिए बंसी खेलने के लिए। हमारे लिए अंतरों में अंतर खोजने में जुटने की तरह है इशाहपुर-चनका का सफर।

इशाहपुर का सोशल स्कूल (सामाजिक बुनावट) कई मायने में हमें तत्सम शब्दों की तरह लगता है, औपचारिकता वहां हावी रहती है कि तभी चनका का सोशल स्कूल हमें विनोबा भावे के भूदान आंदोलन की तरह दिखता है, जहां आपको आजादी है, सामाजिक बंधनों से टूटने के लिए, जमीन को बांटने के लिए। यदि आप तथाकथित ब्राह्मण हैं तो मुसहर की बस्ती में जाने से आपको आपका जातीय विवेक नहीं रोकेगा।

दरअसल एक प्रवासी मैथिल यहां उन्मुक्त हो जाता है। उसे यहां एक समाज गढ़ना होता है। जमीन अधिक, लोग कम, इस रेसियो को वह लोगों से पाटना चाहता है। मंदिर-मस्जिद से दूर यहां पेड़ ही खुदा बन जाता है। धर्म में उलझने से अच्छा उसे भगैत बांचना लगता है, जहां मूलगैन (मूल-गायक) चिल्ला-चिल्ला कर कहता है कि ऊपर वाला काल्पनिक है (आप सुपर हीरो जैसे शब्द का इस्तेमाल करने के लिए फ्री हैं।) यदि कोई ब्रह्म है तो पेड़-पौधे, आओ उसे ही पूजते हैं, सिंचते हैं। यही कारण है कि आपको यहां बांस, नारियल, सुपारी, बेंत के झुरमुट यत्र-तत्र दिख जाएंगे। अफसोस, ऐसी उन्मुक्ता का अहसास हमें इशाहपुर नहीं दे सका।


सवाल उठता है कि इशाहपुर ने प्रवासी मैथिल को क्या दिया
?  उत्तर है उजड़ कर बसने की ताकत। पूर्णिया जिला में आपको ऐसे कई गांव मिल जाएंगे, जिसे प्रवासी मैथिलों ने टोले की तरह बसाया। जिन्हें जाने कितनी बार उजाड़ने की कोशिश भी की गई। कई लौट गए तो कुछ लड़ते-झगड़ते और मजबूत बनकर उभर आए। जिला मुख्यालय से सटा धमधाहा गांव बस्ती छोड़कर दूर शहरों में बस गए प्रावसिय़ों का गांव बन गया तो खोखा नामक गांव तो अपनी पुरानी पहचान को ही रिसाइकिल बिन में डाल कर सो सा गया है।  

(जारी है)


[ सफाई- कल जब मैंने पहला पोस्ट यहां चस्पा किया तो कुछ प्रतिक्रियाएं आई, एसएमएस और मेल के जरिए। कुछ ने गूगल चैट पर भी साथ दिया। यह सफाई ब्लॉग समाज के यार-दोस्तों के लिए है। आप मुझसे किताबी अपेक्षा कम ही रखें। मैं अनुभव गावै सो गीता पर यकीन रखने वालों में एक हूं। दरअसल कोसी और कमला-बलान के बीच दूरियों के इस बही खाते में मेरी अल्प समझ ही छुपी है, कोसी के कछार में बालू की ढेर की तरह, जो हर साल बाढ़ के प्रलय में डूब सी जाती है और फिर उभर आती है। यह कोसी-कमला-बलान अनुभवों पर आधारित है न कि शोध पर। दरअसल मुझे फिल्ड-नोट्स सबसे बेहतर टूल नजर आता है, जो आपकी भी पूंजी बन सकती है। एक दफे सदन सर ने कहा था कि फिल्ड नोट्स जोड़ते चले जाओ कहानियां बनती चली जाएगी]

1 comment:

  1. Shashi K Jha wrote via Facebook
    अबोध आँखों से भगैत को गाते हुए देखकर चमत्कृत रह जाने वाले बालपन से लेकर किशोरावस्था तक में उसकी कथाओं और दर्शन का आदि-अंत तलाशना हमारे लिए भी किसी अबूझ पहेली से कम नहीं होता था. तब तक जब तक कि हमने अपनी ही लोक संस्कृति को ज़्यादा संवेदनशीलत...ा के साथ समझने के लिए इसमें डूब जाने का जतन नहीं किया.
    आजकल आप बार-बार हमें खींचकर इसमें डुबकी लगाने के लिए ले जा रहे हैं. एक सहानुभूतिक अतीत की इस यात्रा में हम भी सहचरों की भूमिका में हैं. शहर और गाँवों के नाम भर बदले हैं लेकिन मिथिला के वैविध्यपूर्ण एकात्मकता का रस हम सबको किन बिंदुओं पर कैसे-कैसे जोड़ देता है यह संस्मरण इसका गवाह है.

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