Friday, February 18, 2011

मैं शहर हूं, किससे करूं शिकायत

मैं शहर हूं। लोग कहते हैं मेरी आंखों में सांपों जैसा आकर्षण होता है, जो भी मुझे देखता है, मेरे जैसा ही हो जाता है, लेकिन आज मैं दुखी हूं। यह दुख मैं आप  लोगों से शेयर करना चाहता हूं क्योंकि आप सब खुद को शहरी कहते हैं। आप में से कई लोगों ने मुझे श्रेणी में बांट दिया है, ठीक उसी तरह जैसे आप खुद को वर्णों (सवर्ण, पिछड़ा, दलित आदि… वैसे मैं इससे इत्तेफाक नहीं ऱखता) में बांटकर रख लिया है साथ ही जाति की बेड़ी में भी खुद को कस लिया है। मैंने सुना है कई लोग अक्सर कहते हैं कि वे छोटे शहरों से बड़े शहरों में दाखिल हो रहे हैं, यही वह शब्द (छोटा-बड़ा) जो जब भी मेरे कानों में गूंजता हैं तो मन व्यथित हो जाता है। मेरी आंखें नम हो जाती है. मैं परेशान हो जाता हूं कि आखिर मेरे नाम के आगे छोटा-बड़ा लगाने की जरूरत आपको क्यों पड़ रही है।


जब आपने अपनी संख्या बढ़ाई तो मुझे एक्सटेंशन नामक विशेषण लगाकार नया नाम दे डाला, मैं तब भी दुखी नहीं हुई लेकिन अब जब आप मुझे छोटा शहर, बड़ा शहर कहते हैं तो मैं दुखी हो जाती हूं।  मैं आपके लिए दिन भर जागती हूं, रात को भी नहीं सोती हूं। सच पूछिए तो मैं आपके लिए आराम भी नहीं करती। आप जो कहते हैं मैं वही करती हूं। आप रात में मेरे सीने पे बुलडोजर चलाते हैं तो भी मैं उफ तक नहीं करती, क्योंकि मुझे पता है कि ऐसा आपकी सुविधा के लिए ही किया जा रहा है। जब आप मुझे वर्गीकृत करते हैं तो मेरे मन में अजीब तरह के चित्र बनने लगते हैं। मैं आपके लिए सबकुछ न्यौछावर कर देती हूं। यकीन मानिए सबकुछ,  प्रकृति की छटा, खुला आकाश, बिजली-पानी, धरती का विस्तार, अपनापन, सुरक्षा की भावना, सबकुछ….., लेकिन इतना सबकुछ करने के बाद भी जब आप मुझे छोटे शहर और बड़े शहर की श्रेणी में बांट देते हैं तो अच्छा नहीं लगता। मेरठ जैसे तमाम इलाके भी तो आप ही के हैं, दिल्ली भी तो आप से बहार होती है फिर क्यों कहते हैं कि मैं (दिल्ली) बड़ी हूं और तुम (मेरठ जैसे तमाम अन्य इलाके…..) छोटे हो। मेरे भाई मुझे इस कदर मत बांटो, ऐसा तो सियासत में किया जाता है। मैं आपके लिए बनी हूं। मुझे विस्तार दें लेकिन इस कदर श्रेणी या वर्गों में ना बांटे क्यों कि आपके बुरे कामों के लिए मैं बदनामी का भी दंश झेलती हूं। मुझे उस वक्त दुख होता है लेकिन सोचती हूं आप में भी तो कुछ लोग अच्छे हैं, जिनके काम से मेरा नाम रौशन होता है।
आप जानते ही हैं कि देश की तरक्की के केन्द्र में मैं ही हूं, मैं ही उत्पादन, बाजार और सम्पत्ति के केन्द्र में हूं । मेरे यहां लोग बेहतर काम और आमदनी की उम्मीद से आते हैं। यह सच्चाई है कि मैं भी कई असमानताओं से भरी हूं । मेरे कई हिस्सों में भूख, गरीबी और बेकारी जमा होती रहती है। इस तरह मेरा बड़ा भूगोल निरक्षर और बीमार दिखाई देता है। सच कहूं तो मेरे भीतर कई शहर होते हैं। पहले दृश्य में साफ-सुथरा, व्यवस्थित और मंहगी कारों से दौड़ता मेरा इलाका नजर आता है, वहाँ  वैसे लोग रहते हैं जिनकी सुरक्षित और अधिक आमदनी होती है। इसलिए उन्हें बेहतर सुविधाएँ मिलती हैं। दूसरे  दृश्य में झोपड़पट्टी है। यह गंदा, तंग और भीड़  भरा हिस्सा है। यहाँ  न लोग ही सुरक्षित हैं और न ही उनके काम या घर। आप में से कई ऐसे लोग हैं जो झोपड़पट्टियों को तरक्की की राह में रोड़ा समझते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि यहाँ  के रहवासियों की मेहनत से आपका बाजार मुनाफा लेता है। अफसोस  इस बात की है कि बदले में उसका श्रेय और जायज पैसा यहां रहने वाले लोगों को नहीं मिलता। मैं यह सबकुछ जानती हूं और लेकिन फिर भी चुप्पी साध लेती हूं इस यकीन के साथ कि आप जो खुद को शहरी कहते हैं, बदलाव के लिए एक नई स्क्रिप्ट तैयार करेंगे। मुझे आप पर भरोसा है कि आप सरोकार की बातें करेंगे, हां केवल बातें ही नहीं बल्कि उसे अमली-जामा पहनाने के लिए कदम भी बढ़ाएंगे। चमचमाती सड़कों के बारे में सोचने वाले आप जैसे लोग झोपड़पट्टी के बारे में भी ख्याल बनाएंगे। मैं अपनी शिकायत के साथ यह सुझाव भी इसी वजह से शेयर कर रही हूं ताकि आप मुझे यह न कहें कि मैं केवल अपने बारे में ही सोचती हूं। दरअसल मैं जो कुछ भी हूं वह आपकी ही बदौलत हूं। मुझे आत्मालाप का शौक नहीं है। आप ही मुझे संवारते हैं, आप ही मुझे बिगाड़ते हैं।

यह तो आप भी जानते हैं कि लोग अपने लोगों से ही शिकायत करते हैं। दरअसल आप मेरे अपने हैं, मैं आपसे हूं, आप मुझसे हैं,  लेकिन उस वक्त मैं असहज महसूस करती  हूं जब आप मुझे छोटे-बड़े की श्रेणी में बांट देते हैं….. प्लीज ऐसा मत कीजिए, यही मेरी शिकायत है आपसे। आशा है यह शिकायत आप दूर करने की कोशिश करेंगे। दो पाटन के बीच मुझे नहीं झुलाएंगे।

(सरोकार में प्रकाशित) 

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