लिखते हुए यादों में खोना मेरे लिए जश्न से बढ़कर है। अक्सर जब कम लिखता हूं तो सोचता हूं, वही सब जिसे मैंने समझा है और साथ ही पढ़ा भी। आज पढ़े हुए कि बात नहीं कर रहा हूं, बात उसकी कर रहा हूं, जिससे मेरे बचपन का मानस जुड़ा है। हमने ग्रामीण परिवेश को देखा और समझा है, इसलिए हर बात की शुरूआत गांव की पगडंडी से ही होती है। इस श्रृंखला में मैं देशी कलम की कथा बांचने जा रहा हूं। इसे मेरे गांव में करची कलम कहा जाता था। था इस वजह से क्योंकि गांव में भी अब लोग इसे भूल गए हैं।
करची कलम का जन्म बांस से हुआ है। बांस भी छोटका वाला। छोटका वाला बांस काफी पतला होता है। बचपन में हमें सुंदर लिखावट के लिए करची कलम थमाया जाता था। बिहार के तकरीबन सभी गांवों में ९० के दशक की शुरुआत तक करची कलम की तूती बोला करती थी। बांस से बनाए गए कलम में चाकू की सहायता से नींव तैयार की जाती थी। उस नींव को इंक की बोतल में डूबोकर भींगा देते थे फिर उससे शब्द उकेरते थे। ये कहानी लेखन की पुरातन परंपरा से नहीं बल्कि आधुनिकता से जुड़ी है।
आज जब हम कीबोर्ड और अपने मोबाइल पैड पर उंगलियां चलाकर सुंदर-सुंदर शब्द उकेर लेते हैं लेकिन जब बात लिखने की आती है तो हाथ थक जाते हैं। तो जनाब, लिखने की आदत को छोड़िए मत। नए साल में फिर से लिखने की भूख को जगाइए।
उम्दा. हमहूं करची के कलम से काम किए हुए हैं :)
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