Tuesday, December 07, 2010

धीरे-धीरे

डॉ.रामदरश मिश्र की एक गजल है- धीरे-धीरे. उसका एक शेर अभी हाथ लगा। आप भी पढिए-


जहां तुम पहुंचे छलांगे लगाकर,
वहां हम भी पहुंचे, मगर धीरे-धीरे।

अब पढ़िए, पूरी गजल-


शुक्रिया
गिरीन्द्र
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।

किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे।


जहां तुम पहुंचे छलांगे लगाकर,
वहां हम भी पहुंचे, मगर धीरे-धीरे।


पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,
उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।

न हँस कर न रोकर किसी में उडे़ला,
पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।

गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।

ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था,
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे।

मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।

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