कई बार कविताएं मुझे अपनी ओर आकर्षित करने लगती हैं, ठीक गीतों की तरह। आज सुबह में जब एक गीत सुन रहा था, "खामोशियां गुनगुनाने लगी, तन्हाइयां मुस्कुराने लगी...." तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता "कितना अच्छा होता है" की याद आ गई। इसकी एक पंक्ति मुझे हर वक्त अपने पास बुलाती है- " कितना अच्छा होता है
एक दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना।"
आप भी पढ़िए पूरी कविता।
गिरीन्द्र
" कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमिनयों में बजती है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते और उतरते हैं।
शब्दों की खोज शुरू होते ही
हम एक दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते हैं
एक दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है
कितना अच्छा होता है
एक दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना।
4 comments:
अच्छा पढ़वाने के लिए शुक्रिया ...
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
गिरीन्द्र, एक चीज जानते हो कि अपने भीतर दूसरे को पा लेना आसान नहीं है। लेकिन यदि ऐसा हम कर लेत हैं तो सचमुच उसकी अनुभूति शब्दों में पेश नहीं की जा सकती है।
अच्छी कविता के लिए शुक्रिया, लेकिन अधिक खोने की कोशिश मत करना। जस्ट इंज्वॉय मैन।
रवि
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है
कितना अच्छा होता है
एक दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना।
वाह बहुत सुन्दर
आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति का.
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