दिल कहता है,
अब सो जाओ
मन कहता है,
अभी जागो
सोने और जागने के फेर में
एक सपना आया
खुली आँखों का सपना
सुना था अजीब होते हैं ऐसे सपने
सपने में पहली बार माँ को देखा
पहले सपने में वो नही आती थी
वो रसोई में थी
जहाँ वो अक्सर रहती है...
माँ को देखकर ही
हमे खाने का मन कर जाता था
आज भी माँ खाना बना रही थी
भूख तेज लगी थी
गरम रोटी और सब्जी लेकर माँ बुला रही थी
खुली आंखों का सपना जैसे टूट सा गया
मैं घर से दूर
यहाँ अपने कमरे में था
रात काटने के लिए
गरम दूध से ही संतोष करना पड़ा .......
और
माँ बहुत याद आने लगी
4 comments:
माँ होती ही ऐसी जिनकी याद रह रह आती ही है।
सपने में पहली बार माँ को देखा
पहले सपने में वो नही आती थी
वो रसोई में थी
जहाँ वो अक्सर रहती है...
माँ को देखकर ही
हमे खाने का मन कर जाता था
बहुत उम्दा।
एक सुन्दर एहसास।
आपकी इस कविता ने तो माँ की याद दिला दी जिनसे दूर रह कर मैं नौकरी कर रहा हूँ .....अच्छी कविता
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
माँ...बस इस शब्द को लिखकर घंटों बैठी रही हूँ कई बार. कानो में मंदिर की घंटियों सा बजता है ये शब्द और माँ अपनी बाहें पसर देती है. फिर मै कुछ नहीं लिख पाती. कोरे कागज में सारे ख्याल छुपा कर नींद में लौट जाती हूँ. आपकी ये कविता पढ़कर वो कोरा कागज खुल गया है. कितने अक्स उभर रहे हैं एक साथ इस पर....कितने अहसास..
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