Tuesday, February 03, 2009

चलती गाड़ी और दूर तक अंधेरा- चार छोटी कवितायें

मुझे ये सब अच्छा लगा है, जाने क्यूं.
जब-जब कहीं दूर निकलता हूं, लगता कोई पास है।
सीट के बगल में बैठे लोग, चुप्पी साधे,
बोलने की इच्छा को सब हैं दबाए,
तब भी लगता है, जैसे कोई अपना हो यहां।
अपने में हैं सब खोए यहां,
यहां सब का साथी बस एक है, वो है मोबाइल फोन।
घंटी बजते हीं, समवेत स्वर में हेलो-हेलो शुरू हो जाता.....
हम कितनी दूर निकल गए, पता ही नहीं चल पाता....
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हमारे पास कोई है,
एक अजीब सी सरसराहट सुनाई पड़ रही है।
दो सीटों को बीच में ही बांटता है एक पर्दा,
उसे उठाता हूं, तो कोई नहीं है, लेकिन अब भी लगता है
जैसे कोई मुझे देख रहा है।
क्या ये मेरी कल्पना है....................
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सिगरेट का धुंआ...एक अजीब चीज है...
उजले रंग के कागज में लिपटी तंबाकू
और बस एक कस लेने की इच्छा।
क्या यही है नशा....
कई लोग एक साथ, एक समय उड़ा रहे हैं
सिगरेट का धुँआ, कमरे बंद पड़े हैं
धुंआ बढ़ता जा रहा है, फैलता जा रहा है.
सिगरेट का कस खत्म हुआ अब....
बस मैं अकेला बचा रहा गया....
कागज और तंबाकू के बचे राखों के बीच
क्या यहां शांति के लिए होम हुआ है.....
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बगल में बैठी छोटी सी लड़की,
अपने मां को निहार रही है
और मां गृहशोभा के पन्ने को
बार-बार मां की पल्लू को खींचती..
लेकिन मां पर असर नहीं...
क्या सोच रही होगी ये छोटी लड़की.....

6 comments:

  1. Anonymous10:34 AM

    har kvita bhav alag bahut sundar,khaas kar 1st and last lajwaab.

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  2. अच्छी कविताये है शीर्षक भी न्याय करता हुआ, बधाई

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  3. बहुत सुंदर कविताएं हैं....

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  4. क्या बात है, बेहद खूबसूरत कविता

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  5. बहुत ही बेहतरीन रचनाएं हैं।

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