उनकी कविताओं में जीवन के सूक्ष्म अनुभव महसूस किये जा सकते हैं। बाज़ार संस्कृति की शक्तियों के विरुद्ध उनकी सोच भी कविता में उभरकर सामने आती है। उनकी कविताएं स्थितियों पर तात्कालिक प्रतिक्रिया मात्र नहीं होती हैं। वे पहले अपने भीतर के कवि और कविता के विषय में एक तटस्थ दूरी पैदा कर लेते हैं। फिर होता है सशक्त भावनाओं का नैसर्गिक विस्फोट। उनकी कविता पढ़कर महसूस होता है कि जैसे वे एक निरंतर यात्रा कर रहे हों।
पेश है मेल से भेजी उनकी कविता शून्यराग
गिरीन्द्र
कोहरे का क्या हाल है
मिला उसे रास्ता
कि वह गिरता रहा जमे हुए पाले पर
फिसलता संभलता
उन्ही पुराने हाथों का सहारा लेते
ठंड से खुरदरे
कि खरोंच दें कुछ भी कोमल
अपने ही स्पर्श पर नहीं रहा जैसे भरोसा
यह किसका हाथ
आइने में स्वयं को पहचान कर भी
मुस्कराहट नहीं उदासी भी नहीं
बात तो एक ही है
एक बेहताशा हँसी कहीं रूकी पड़ी है भीतर
एकाएक फूट पड़ेगी अटकी हुई छींक की तरह
और मैं बंद कर लूँगा आँखें
शून्यराग
क्या शून्य की कोई अंतिम सीमा होती है
कोई अंतिम तिथि
जिसके बाद वह शून्य नहीं रहता
कुछ और हो जाता है
4 comments:
बहुत गहरी रचना प्रेषित की है।बधाई।
अच्छी कविता अन्दर तक छू जाती है..........इस कविता का संप्रेषण अद्भुत है.
राणा जी को मेरी बधाई पहुँच दें गिरीन्द्र
बहुत गहरे में ले गई यह रचना। बहुत शुक्रिया पढवाने का।
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना लगी यह
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