फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस रचना को जब भी पढता हूँ , कहीं और ही चल-निकलने का मन कर जाता है। दरअसल हम काम को केवल काम समझते हैं और आड़े हाथ अपना इश्क आ जाता है। खैर अहमद साब को पढ़ें ....
वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर
हम ने दोनों को अधूरा छोड़ दिया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
ReplyDeleteऔर इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर
हम ने दोनों को अधूरा छोड़ दिया
... बहुत खूब