मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Saturday, July 28, 2007
बोलो हो औराही – हिंगना के पंचो.. क्या मैं झूठ कह रहा हूं..
धर्मयुग के 1 नवंबर,1964 में प्रकाशित तथा आत्मपरिचय में संकलित फणीश्वर नाथ रेणु की इन पंक्तियों को जब भी पढ़ता हूं, मन अपने गांव की धूल उड़ाती सड़कों पर सरपट दौड़ने लगता है..। फिर लौटकर आने का मन नहीं करता है..। आज फिर मन वहीं चला गया है।
रेणु की इन बिंदास बातों में रस है, आप भी पढ़िए और इस महानगरीय उठापटक जीवनशैली से हटकर अपने गांव की कुछ ही देर के लिए ही सही, लेकिन लौटने का प्रयास कीजिए-
(हो सकता है आप में से कइयों ने इसे कई बार पढ़ा भी होगा तो भी एक बार मेरे सुर में सुर मिला ही लीजिए)
"मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर अपने गांव चला जाता हूं। जहां मैं घुटने से ऊपर धोती या तहमद उठा कर – फटी गंजी पहने – गांव की गलियों में, खेतों – मैदानों में घूमता रहता हूं। मुखौटा उतारकर ताजा हवा अपने रोगग्रस्त फेफड़ों में भरता हूं। सूरज की आंच में अंग – प्रत्यंग को सेकता हूं (जो, हमारे गांव में लोग बांस की झाड़ियों में या खुले मैदान में – मुक्तकच्छ होकर निबटते हैं न.)।
झमाझम बरखा में दौड़ – दौड़कर नहाता हूं। कमर – भर कीचड़ में घुसकर पुरइन (कमल) और कोका (कोकनद) के फूल लोढ़ता हूं। धनखेतों से लौटती हुई धानियों (सुंदरियों) से ठिठोली करता हूं, गीत गाता हूं –
“ओहे धानी, कादै छ काहेला है – जाइब बंगला- लाइब मोहनमाला तोहरे पिन्हाएला हे – ए - ...।“ फिर, शहर आते समय भद्रता का मुखोस ओढ़ लेता हूं।
मैंने रात में भैंस चराई है। रात में पानी में भीगकर मछली का शिकार किया है। जाड़े की रात में, तीसी के फुलाए हुए खेतों में बटेर फंसाया है..। बारातों में पगड़ी बांधकर घोड़ा दौड़ाया है। गांव के लोगो के साथ मिलकर लाठी से बाघ का शिकार किया है.। (बोलो हो औराही – हिंगना के पंचो.. क्या मैं झूठ कह रहा हूं.. ) और...और...और... औराही – हिंगना के लोग ही बताएँगे कि मैंने क्या-क्या किया है। किन्तु जो भी किया है, (सु-कर्म कु-कर्म) उनकी स्मृतियां मेरी पूंजी हैं।
कहानी या उपन्यास लिखते समय थकावट महसूस होती है अथवा कहीं उलझ जाता हूं तो कोई ग्राम - गीत गुनगुनाने लगता हूं।
.........इस समय एक एक बरसाती गीत गाने को जी मचल रहा है-
“भादव मास भयंकर रतिया-या-या, पिया परदेस गेल धड़के मोर छतिया-या-या, कैसे धीर धरौं मन धीरा- आसिन मास नयन ढरै नीरा-आ-आ-आ.....................................।“
गोर लगइछि झाजी. अति उत्तम छई.
ReplyDeleteअति सुंदर और संवेदनशील.
ReplyDeleteरेणुजी का नित नया पन्ना सामने आ रहा है जिसे पढ़कर मन बरबस गांव की सैर पर चल उठता है....आनंदातिरेक में डूब जाता है...धन्यवाद गिरिजी.
ReplyDeleterenujee ki har bat aur har kahani nirali hai. maila aanchal ko hi padhia villege ki masti hai.
ReplyDeleteपढकर मज़ा आ गया. वैसे ये पंक्तियां काफ़ी पहले पढी थी.. पर आज भी उतनी ही नवीन लगीं....शुक्रिया,,,
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