Saturday, June 30, 2007

फणीश्वर नाथ रेणु : "त्रिलोचन के सॉनेट पढ़ते समय यह देह यंत्र "रामुरा झिं झिं" बजने लगता है................."




मेरे रेणु अक्सर लोगों को कलम के सहारे याद करते हैं, त्रिलोचन को याद करते हुए रेणु आज आपके सामने हैं.........("स्थापना" में सितम्बर 1970 में प्रकाशित "अपने-अपने त्रिलोचन" से ....)



कई बार चाहा कि, त्रिलोचन से पूछूँ- आप कभी पूर्णिया जिला की ओर किसी भी हैसियत से, किसी कबिराहा-मठ पर गये हैं? किन्तु पूछकर इस भरम को दूर नहीं करना चाहता हूं। इसलिए, जब त्रिलोचन से मिलता हूं, हाथ जोड़कर, मन ही मन कहता हूं- "सा-हे-ब ! बं-द-गी !!"

कविता मेरे लिए समझने-बूझने या समझाने का विषय नहीं, जीने का विषय है। कवि नहीं हो सका, यह कसक सदा कलेजे को सालती रहेगी। और, अगर कहीं कवि हो जाता तो, त्रिलोचन नहीं हो पाने का मलाल जीवन-भर रहता। संभव है तब त्रिलोचन के एक सॉनेट की एक पैरोडी लिखकर "सहस्त्रलोचन" नाम से प्रकाशित करवाने की हिमाकत भी कर बैठता।....और, मैं त्रिलोचन हीं क्यों होना चाहता- पन्त, नरेन्द्र, सुमन, बच्चन, महादेवी, दिनकर, नलिनविलोचन अथवा रेणु क्यों नहीं.? यह सवाल मैं अपने आपसे बार-बार पूछता रहता हूं।

त्रिलोचन ने अपने बारे में अपने मुंह से अपने सॉनेट में जो कुछ कहा है, उसके अतिरिक्त और कुछ जानने-सुनने की वासना मन में कभी नहीं जगी। और न कभी मन में लगनेवाली गुदगुदी को त्रिलोचन की गजलों को गुनगुनाकर सहलाया। गजल, काजी नजरूल की भी मुझे कभी नहीं रूची-जंची। त्रिलोचन के सॉनेट के लिए हीं मैं उसे "शबद योगी" कहता हैं। उसके कुछ सॉनेट हद-अनहद की सीमा को लांघकर- साखी, शबद, रमैनी की कोटि के हो गये हैं। त्रिलोचन ने बहुत कम लिखा है। अर्थात बहुत अल्प उत्पादन किया है। किन्तु मेरे लिए त्रिलोचन का होना मात्र उसकी रचनाओं से अधिक है। अतएव "सुपर मार्केट डिपार्टमेंट स्टोर संस्कृति" के बटखरों से त्रिलोचन को तोलने के लिए तुले हुए लघु गुरू आलोचकों से कभी बहस नहीं करना चाहता। बात बहककर साम्प्रदायिक युद्ध और जाति संघर्ष तक पहुंच जा सकती है। (बिहार को हीं जातिवाद के लिए नाहक बदनाम क्यों किया जाता रहा है....) और, भारत धर्मनिरपेक्ष देश है और इस सुरक्षा चैतन्य समाज में स्वयं को सुरक्षित रखना हीं जीवन का प्रथम प्रिन्सिपुल है।

मुझे त्रिलोचन के उस सॉनेट की पंक्तियां याद आयी, जिसमें दशाश्वमेध घाट के "चित्र-कल्प" हैं। सो मेरे लिए तो-

"दशाश्वमेध घाट पर गंगा की धारा है
तट पर जल के ऊपर ऊंचे(भवन नहीं)
त्रिलोचन खड़े हैं....।
"
कबीर को पढ़ते समय मेरा मन "भाई साधो" का हो जाता है। फारसी के कवि जलालुद्दीन रूमी का मैंने नाम सुना ही है। अर्थात विद्वानों के लेखों में उद्धृत उनकी पंक्तियों के भावानुवाद को पढ़कर ही रोम-रोम बजने लगते हैं। बंगाल के प्रसिद्ध बाउल गायक लालन फकीर के गीतों को सुनते समय "देहातीत" सुख का परस सा पाया है और त्रिलोचन के सॉनेट पढ़ते समय यह देह यंत्र "रामुरा झिं झिं" बजने लगता है और तन्मय मन को लगता है-

"वाणी से सावन फूटा ऋतुओं सहित,
भक्ति की गांठ कस गयी भींग-भींगकर,
आत्म- व्यंजना को जगा..........।"

(मैंने आत्म-व्यंजना ही लिखा है न.. आत्म-वंचना तो नहीं..?)
सा-हे-ब....बं-द-गी

त्रिलोचन (जी) को देखते ही हर बार मेरे मन के ब्लैक बोर्ड पर, एक अगणितक असाहित्यिक तथा अवैज्ञानिक प्रश्न अपने-आप लिख जाता है- वह कौन-सी चीज है, जिसे त्रिलोचन में जोड़ देने पर वह शमशेर हो जाता है और घटा देने पर नागार्जुन...............?

3 comments:

  1. बढ़िया चीज़े निकाल रहे हैं भाई आप..

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  2. अच्छा लगा पढकर ।

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  3. अभय और प्रत्यक्षा की आवाज़ में मेरा सुर भी मिला लीजिए, आभार स्वीकार करें.

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