धक्के का समाजशास्त्र
“धक्का” कई तरह का होता है, इसे आप परिभाषित नहीं कर सकते हैं। तो भी आप धक्के को कुछ ग्रुप में बांट सकते हैं, मसलन जीवन में धक्का, सड़क पे धक्का, चलते-चलते धक्का और न जाने ऐसे कितने धक्के। एक बात धक्के के बाद हीं समझ में आती है, वह यह कि आप सभंलने की कोशिश करते हैं..। खैर, एक धक्का जो अक्सर दिल्ली वालों को खाना पड़ता है, वह है “बस में धक्का ”....। आप इसे रेलम-पेल भी कह सकते हैं।
अधिकतर दिल्ली वाले इस धक्के से त्राहि-माम किए रहते हैं। लेकिन कुछ इस धक्के को सुख भी मानते हैं। धक्के के ऐसे अनेक रुपों को लेकर बतकही करने के मुड में आज साड्डी दिल्ली है।
बस का धक्का सचमुच अलग होता है। इसे चखने के लिए आपको चढ़ना होगा दिल्ली के रोड़ पर दौड़ते-चिल्लाते बसों पर। मतलब सवारी करनी होगी। इसका असली मजा यदि आपको लेना है तो इसके लिए दो उपयुक्त समय है। एक सुबह 9 से 10 बजे के बीच या फिर शाम 5 से 7 बजे के बीच। विशेषज्ञों की यदि माने तो यह वक्त दिल्ली में रोज आता है..। इस धक्के के लिए रूट मायने नहीं रखता है, जिस भी रुट में चढ़िए धक्के से आप रु-ब-रु हो सकते हैं।
इस धक्के से कईयों की रोजी-रोटी भी चलती है। पॉकेट-मार भैया इसी श्रेणी में आते हैं। पूर्वी दिल्ली के कल्याणपुरी-त्रिलोकपुरी आदि इलाकों में ऐसे कई भैया रहते हैं। धक्के को लेकर आप घबराना मत, क्योंकि यह दिल्ली का “धुव्र सत्य” है। इस धक्के से सुख लेने वालों की भी संख्या कम नहीं है। एक गैर सरकारी संस्था इस “सुख सिद्धांत” का सर्वे कर रही है। रिर्पोट जल्द हीं आने वाली है, मिलते ही आपको सूचित किया जाएगा। वैसे सर्वे के प्रारंभिक नतीजे गुड्डू की लेंग्वेज में “मस्त” है।
तो साहेबान, धक्के को लेकर तैयार रहिए। यह कभी भी लग सकता है और कहीं भी। “बस” तो, बस एक बहाना है....।
मजा आ गया ....
ReplyDeleteआप दिल्ली की बात कर रहे हैं । किसी दिन हम भी बंबई के धक्कों से आपको परिचित करायेंगे । और आपको ये भी बतायेंगे कि क्यों यहां की एक जगह का नाम है भाऊचा धक्का
ReplyDeleteबहुत बढ़िया धक्का शास्त्र. अब रिपोर्ट का इंतजार लगवा दिया-आते ही बताना जरुर.
ReplyDeleteसच मेम जब कभी मुम्बई आओगे तो पता चलेगा कि रे-लम-पेल किसे कहते हैं।
ReplyDeleteअच्छा धक्का दिया आपने। संभलने में कुछ वक्त लग गया।
ReplyDeleteक्या खूब लिखा है आपने....धक्के से सीख मिलती है..लेकिन हर धक्के से अलग-अलग सीख। जैसा आपने लिखा है “कुछ इस धक्के को सुख भी मानते हैं...” वो समय ढ़ूंढ़ के धक्के खाने जाते हैं चाहे वो पाकेटमार भैया हो या कोमल स्पर्श की चाह रखनेवाले मनचले आशिक वहीं कई इस धक्के के डर से घंटों एक ही जगह बैठे रह जाते हैं...फिर तो वे कुछ सीखने या सुख लेने से रहे.....है न ?
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