मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Tuesday, May 15, 2007
"माँ "
विजय भाई काफी दिनो बाद अनुभव में कि-बोर्ड पे हाथ थपथपाते नज़र आ रहे हैं, अनुवाद और संस्मरण के अलावे आप कविता भी लिखते आए हैं. गौरतलब है कि अनुभव में विजय ने गांव की बातों को काफी रोचक अंदाज में पेश कर चुके हैं. इस दफे जनाब कविता के संग हाजिर हैं.
"माँ " को लेकर इनकी यह रचना आपके सामने .......
करती तुमपर न्योछावर वो, हर 'आज' और हर 'कल' अपना,
फिर भी किसी वापसी की कोई चाह नहीं रखती है।
जिनके सपने का इक कोना भी बुन पाता न तुम बिन,
तेरे सपनों के कोने में वो कहीं नहीं दिखती है।।
जन्म-पालन से अलग भी और कोई
स्वरूप मां का मन में जब भी लाओगे।
सामर्थ्य दृष्टि में यदि कुछ शेष है-
सम्मुख स्वतः भगवान को ही पाओगे।।
तेरे खुशियों से हंस लेती, तेरे दुख से रोती है।
संसार में मां के जैसी तो बस मां ही होती है।।
कतरा-कतरा है ऋणी तेरा, सांसे-धड़कन, सारा जीवन।
पर याद भी उनको करने को है पास नहीं तेरे दो क्षण।।
क्षण क्या दिन-दिन है गुजर रहा, जब जमती यारों की महफिल।
स्मृति-पटल के कोने में भी काश ! कभी होती शामिल।।
किस आस में वो हंसती जाती थी, प्रसव-वेदना के क्षण भी।
कि लाल मेरा आ रहा है अब...खिलेगा आंगन, उपवन भी।।
...उफ्फ...कृतघ्न...हतभागी ! मनुजता से रूठा हूं।
करुणा, ममता- सान्निध्य को ही भूला बैठा हूं।।
पाषाण-हृदय..! वह करुण-वेदना-पट भेदो।
दो बूंद अश्रु के अर्घ्य सही....कुछ तो दे दो।।
सुन्दर रचना है।बधाई।
ReplyDeleteगिरीन्द्र भाई,..बहुत सुंदर कविता लिखी है,..
ReplyDeleteवैसे तो हर पक्तिं अपने आप में अभूतपूर्व है मगर ऐक पन्क्ति कुछ जियादा पसन्द आई,...
जन्म-पालन से अलग भी और कोई
स्वरूप मां का मन में जब भी लाओगे।
सामर्थ्य दृष्टि में यदि कुछ शेष है-
सम्मुख स्वतः भगवान को ही पाओगे।।
इसे पढ़ कर एक गाना याद आ गया,..
ओ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी,..उसको नही देखा हमने कभी...
बधाई!
सुनीता(शानू)
कैसो हो गिरीन्द्र…
ReplyDeleteप्रस्तुति लाजबाव है…कहने की आवश्यकता नहीं…
माँ एक ऐसी बनावट है उस उपर वाले की जिसके बारे मे हमेशा कुछ शेष ही बच जाता है कहने को तभी तो वो माँ है…जो कम से कम लेखनी में तो याद आती है…।