Tuesday, April 08, 2025

जहां मिलती है गंगा और कोसी- त्रिमोहिनी संगम'

पूर्णिया जिला स्थित चनका गांव में जहां अपनी खेती बाड़ी की जमीन है, वह कोसी की एक उपधारा कारी कोसी का तट है। वहीं शहर पूर्णिया सौरा नदी के तट पर बसा है। हालांकि ये दोनों नदियां हम लोगों की वज़ह से नाले से भी बदतर बन चुकी है। नदी की बातें करने वाले अब नहीं के बराबर हैं, बात होती है तो बस प्लॉट की! बात होती है जमीन के टुकड़े को बेचकर शहर बसाने की!
खैर, यह सब लिखने के पीछे कोसी और गंगा नदी के संगम स्थल की यात्रा की कहानी है। हाल ही में शोध कार्य के सिलसिले में सूरत स्थित सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़ में एसोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत Sadan Jha  सर पूर्णिया आए थे। हमने उनके संग ही उस जगह की यात्रा की, जहां गंगा से मिलती है कोसी नदी। खुद पर गुस्सा भी आया कि अबतक 'त्रिमोहिनी संगम' क्यों नहीं गया था!

बिहार के कटिहार जिला स्थित कुर्सेला के पास गंगा के साथ कोसी नदी संगम करती है, जो 'त्रिमोहिनी संगम' के नाम से जानी जाती है।

इस जगह आप आसानी से नहीं पहुंच सकते हैं क्योंकि कोई तय रास्ता नहीं है। कुर्सेला पुल से जब हम नीचे उतरते हैं तो बाईं तरफ जो रास्ता दिखता है वही आपको कोसी गंगा संगम तक पहुंचाएगी।

नदी के ऊपर रेलवे का पुल, गुजरती आवाज देती रेलगाड़ियां लेकिन नीचे दूर दूर तक कोई नहीं,  एकदम सुनसान! नो मेंस लैंड! सफेद बालूचर का इलाका। 

पहले सुनते थे कि कोसी जिधर से गुजरती है, धरती बाँझ हो जाती है। सोना उपजाने वाली काली मिट्टी सफेद बालूचर का रूप ले लेती है। पहली बार इस बात को अनुभव करने का मौका मिला लेकिन बालूचर में अब इस मौसम में लोगबाग तरबूज उपजा लेते हैं, इसकी अलग कहानी है।

कोसी नदी और गंगा नदी जहां संगम करती है, वहां की धारा देखने लायक है। वहाँ जब हम पहुंचने की जुगत में थे और बालू वाले इलाके में फंस गए थे, तो उसी दौरान तीन लड़के दूर के किसी गांव से इसी संगम में डुबकी लगाने आ रहे थे और इस तरह 11 वीं में पढ़ने वाले ये तीन किशोर हमारे गाइड बन गए, फिर क्या था, इस अंचल की समसामयिक कहानियों का पिटारा ही खुल गया! इसकी कहानी फिर कभी।

करीब तीन किलोमीटर पैदल-पैदल धूल उड़ाते जब हम 'त्रिमोहिनी संगम' पहुंचे तो वहां की हवा ने हमारी सारी थकान को मानो हर लिया। दोनों नदियों का पानी अपने रंग की वजह से पहचाना जा सकता है, नील वर्ण में गंगा तो मटमैली कोसी लेकिन जहां दोनों मिलती है वहां के रूप के बारे में क्या कहें! अपरूप !

हम जब भी कोसी - गंगा की बात करते हैं तो बाढ़ पर अपनी बात रोक देते हैं लेकिन नदियों के जीवन पर और नदियों के आसपास के जीवन पर बातें बहुत कम होती है। उम्मीद है आने वाले समय पर सदन सर इस पर बातें करें। अपने लिए सदन सर उन गिने-चुने इतिहासकारों में से हैं, जो अँग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में भी गंभीर शोधपूर्ण लेखन करते रहे हैं।

उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की आंचलिक आधुनिकता का विश्लेषण करते हुए सदन सर रेणु के अनोखे लहजे, कोसी अंचल की सांस्कृतिक स्मृति और कहन के अनूठेपन को व्याख्यायित करते हैं।

कोसी गंगा संगम पहुंच कर मुझे अहसास हुआ कि यही रास्ता हमें कोसी अंचल की कथा सुना सकता है। रेणु कहते थे कि  'घाट न सूझे बाट न सूझे,  सूझे न अपन हाथ ' कुर्सेला पुल से जब हम संगम की तरफ भागे जा रहे थे तो उनकी यही पंक्ति अपने कानों में गूंज रही थी। 

इस यात्रा पर रिपोर्ताज लिखने की इच्छा है। माटी के रंग को समझने की इच्छा है कि कैसे कोसी की माटी बालू बनकर अलग तरीके से धंस रही है तो वहीं गंगा की माटी सूखकर पत्थर की तरह किस तरह से आवाज दे रही है।  एकतरफ़ मक्का, गेंहू उपज रहा है तो एकतरफ तरबूज!

दरअसल नदी के व्यवहार को नदी के साथ रहकर ही समझा जा सकता है, नदी ही लोक है, नदी ही कथा है। इसके लिए नदी के आसपास प्रवास करना होगा। एक दिन की यात्रा से यह संभव नहीं है, कोसी के पास जाना होगा कई बार....


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