Wednesday, June 26, 2019

एक फ्रीलांसर की पीड़ा

कुछ दिन पहले की बात है। देश के एक बड़े हिन्दी अखबार (हिन्दुस्तान) की साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक का फोन आया था , सोशल मीडिया पर कोई विशेषांक निकाल रहे थे।

उन्होंने पत्रिका के लिए हजार-पन्द्रह सौ शब्द का एक लेख लिखने के लिए कहा। गाम घर और सोशल मीडिया को लेकर हमने लिख कर भेज दिया। सम्पादक जी शायद लेख से संतुष्ट नहीं हुए, उन्होंने कहा ' आपके गाँव में सोशल मीडिया से क्रांति कहाँ हुई' ☺️

सम्पादक जी ने पहले लिखबा लिया और फिर लम्बा ज्ञान दे दिया और उसके बाद लेख को नकार दिया। बहुत दिनों बाद नौकरी टाइप फील हुआ 😂
1500 रुपये की कीमत में हिन्दी में लिखकर क्रांति ही हो सकती है। सम्पादक जी ने सोशल मीडिया पे सक्रिय मेरे जान पहचान के कुछ लोगों का हमसे नंबर भी लिया था।

इस घटना से दो सीख मिली-

1. पहली बात अपने जान पहचान के लोगों का नम्बर पूछकर ही किसी के साथ शेयर करना चाहिए।

2. लेख की कीमत तय हो और कोई छापे तो ही टाइप कर भेजना चाहिए और इस संबंध में अखबार/पत्रिका आदि से ईमेल जरूर मंगवा लें।

3. आज के दौर में हिन्दी में फ्रीलांस करने वालों को सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर तारीफ से बचना चाहिए, नहीं तो बड़े बड़े बैनर वाले मुफ्त में लिखवाना शुरू कर देंगे 😂

देखिये न राजेन्द्र मंसूरी का बीज डीजल फूँकर, कादो कर खेत में गिरा चुके हैं, छोटे छोटे पौधे भी आ गए हैं लेकिन बारिश अबतक शुरू नहीं हुई है, ऐसे में धनरोपनी के बारे में सोचकर ही चिंता बढ़ जाती है। खेती-बाड़ी की चिंता कम करने के लिए ही यह पोस्ट लिखा है 😀

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