Monday, June 29, 2015

शहर से गाम , गाम से शहर

हर रोज शहर में डॉक्टर-दवा करते दोपहर में जब यहां आता हूँ तो आगे दूर दूर तक खेतों में में लगे धान के छोटे छोटे पौधों को देखकर मन के भीतर का सारा दुःख छूमंतर हो जाता है।

 फसल के चक्र की तरह जीवन का चक्र भी यहां आकर सुलझता दिख जाता है। जीवन का व्याकरण खेत खलिहानों में एकदम सहज हो जाता है। उस खेत को देखकर मन मजबूत हो जाता है जो 12 महीने में मौसम की मार झेलकर भी किसानी कर रहे लोगों का घर-दुआर भर देती है।

फिर लगता है कि हम क्यों जीवन से शिकायत करने बैठ जाते हैं। दरअसल हम देना कम और लेना अधिक चाहते हैं और ऐसे में मन हमारा कमजोर होता चला जाता है। कम्फर्ट जोन में रहने की हमारी आदत हमें डरपोक बनाती जा रही है ।

 इन सब चीजों को देखते भोगते हुए मुझे किसानी का जीवन सबसे सरल दिखने लगता है। कबीर की माया महाठगनी का जटिल फार्मूला उस वक्त अचानक सुलझ जाता है जब मेरी नजर खेत के फसल पर टिक जाती है जो हर रोज बढ़ती है और जब पूरा बढ़ जाती है तब हम उसे काटकर घर ले आते हैं। खेत से हम देने की प्रवृति सीख सकते हैं। धरती मैय्या की यह लीला मेरे मन को मजबूत कर देती है।

खेत खलिहानों को जी कर और उसे महसूस कर जब हर शाम शहर के अहाते में दाखिल होता हूँ तो मन के सारे उलझे तार सुलझते दिखने लगते हैं। मैं मन ही मन मुस्कुराता हूँ।

बिछावन पर लेटे बाबूजी को भर आँख देखता हूँ तो लगता है कि खेत भी तो मुझे यही सब सीखा रही है न जो बाबूजी ने हमें बिछावन पर लेटने से पहले सिखाया था। दरअसल हम सब अपने हिस्से का काम पूरा कर लेट जाते हैं और फिर नए की तैयारी में लग जाते है। संग ही आगे की पंक्ति में बैठे लोगों को देखते हैं कि आखिर वे क्या कर रहे हैं ? वे उन अधूरे कामों को किस अंदाज में आगे बढ़ाने में जुटे हैं ... बाबूजी की शांत आँखें मुझे यही सब शायद दिखा रही है ...खेत-खलिहानों की तरह।

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