कोसी के कई जिले की उपजाउ मिट्टी जिस तरह से साल में तीन बंपर फसलें देती हैं, ठीक उसी तह यहां की फिजा ग्राम्य लोक संस्कृतियों से सालों भर महकती रहती है। यकीन मानिए यहां के गांवों में कई चीजें ऐसी छुपी है कि जिसे देख और सुनकर आप मस्ती के आलम में झूम सकते हैं। तो चलिए, आपको ले चलते हैं कोसी के उन गावों में जहां आपकी मुलाकात ऐसी ग्राम्य गीतों से हम करवाएंगे, जिसमें एक ओर सूफियाना रंग का अहसासा मिलेगा वहीं दूसरी ओर किसानों की आत्मा आपको दिख जाएगी। असल में गांव से कनेक्शन यही है क्योंकि गांव की कुछ चीजें आपको खुद के मोहपाश में बांध लेती है और गांव के ही हो जाते हैं।
भले ही बेमौसम बरसात ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी है लेकिन इसके बावजूद जो कुछ फसल घर तक किसान लाए हैं उसी से वे खुश हैं। ग्राम्य गीतों के जरिए वे अपनी मन की बात रखते आए हैं। ऐसे कई गीतों को सुनते समय "देहातीत" सुख का आनंद मिलता है।
"विदापत-नाच" हो या फिर "भगैत", ये दोनों कोसी की माटी की खुश्बू को खुद में समेटी हुई है। हालांकि विदापत नाच अब खत्म हो चुका है लेकिन भगैत के प्रति लोगों का आकर्षण अभी भी बना हुआ है। "भगैत" कोसी के तकरीबन सभी जिलों में खूब गाया और बांचा जाता है।
भगैतक के तीन अंग माने गए हैं। गायन, नाट्य, और दर्शक। गायन में गीत के संग बोलचाल को शामिल किया जाता है। मंडली के सदस्यों को भगैतिया कहा जाता है। दरअसल भगैत एक ऐसा लोकगीत है, जिसमें गीत के संग-संग गायक लोगबाग को कुछ बातें भी बताता रहता है।
आप कह सकते हैं कि गीत के संग डॉयलॉग भी चलता रहता है। कहानी की शैली में गायक अपने दल के साथ भगैत गाता है। इसे सुनने के लिए झुंड के झुंड लोग उस जगह जमा होते हैं जहां भगैत होता है। 10 से 11 लोगों की एक टीम होती है जो भगैत गाते हैं।
भगैत दल के मुखिया को "मूलगैन" कहते हैं। मूलगैन गांव-घर की बोली का शब्द है, इसे आप ‘मूल-गायक’ भी कह सकते हैं। मूलगैन कहानी प्रारंभ करता है और फिर समां बंध जाता है। हारमोनियम और ढ़ोलक वातावरण में रस का संचार करते हैं। दाता धर्मराज, कालीदास, राजा चैयां और गुरू ज्योति, भगैत के मुख्य पात्र होते हैं।
भगैत सांप्रदायिक सौहार्द का शानदार उदाहरण हैं। जहां एक ओर इस गायन शैली में हिंदू पात्र होते हैं वहीं दूसरी ओर उसी सम्मान से मुस्लिम पात्र भी आपको मिल जाएंगे। दाता धर्मराद, गुरु ज्योंति जैसे हिंदू पात्रों की तरह मुस्लिम समुदाय के लिए "मीरा साहेब " प्रमुख पात्र हैं।
मुस्लिम के लिए होने वाले भगैत को "मीरन" कहा जाता है। यहां बोली जाने वाली ठेठ मैथिली में भगैत और मीरन गाया जाता है। गौर करने लायक बात यह है कि इस कथा-गीत में अंधविश्वास सिर-चढ़कर बोलता है। मसलन मूलगैन पर भगवान आ जाते हैं। वह जो कुछ बोल रहा है, वह ईश्वर-वाणी समझी जाती इस कार्यक्रम बलि-प्रथा और मदिरा की खूब मांग होती है।
48 घंटे तक अनवरत चलने वाले इस कार्यक्रम का आयोजन अक्सर गांव के बड़े भू-पति हीं करते हैं। क्योंकि इसके आयोजन में अच्छा-खासा खर्च होता है। अक्सर फसल कटने के बाद हीं ऐसे आयोजन होते हैं। क्योंकि उस वक्त किसान के पास अनाज और पैसे कुछ आ ही जाते हैं।
भगैत के इन सभी पक्षों पर नजर दौड़ाते हुए हमें यह भी समझ में आता है कि गायन की यह शैली म्यूजिक थेरेपी का भी काम करती है। हाल ही में एक भगैत में शामिल होने का मौका मिला तो वहां मैंने देखा कि एक बीमार आदमी को गीत के जरिए स्वस्थ किया जा रहा था।
गीत के विभिन्न रागों और आवाज के उतार-चढ़ाव के जरिए उस बीमार आदमी को हमने सामान्य अवस्था में चलते हुए पाया। दरअसल यह भगैत का एक दूसरा पक्ष है, जिस पर लंबी चर्चा हो सकती है, बहस की गुंजाइश है लेकिन इन ये भी सत्य है कि भगैत एक कला के रूप में अलग हीं दुनिया बसाता है, जिस दुनिया में गांव-घर के लोग आनंद खोजते हैं, सुख की तलाश करते हैं, दुख के बादल छंट जाने की प्रार्थना करते हैं।
कोसी के ग्राम्य संस्कृति में भगैत रच-बस गया है। हर साल गांव के लोग फसल कटने के बाद भगैत में डूब जाते हैं। भगैत के गायन शैली में वे सुख-दुख से ऊपर उठकर खो जाते हैं। चलत-चलते हम आपको भगैत गायन की एक पंक्ति सुनाना चाहेंगे, जिसमें गांव में भविष्य में आने वाली विपत्ति के प्रति गांव वालों को सचेत किया गया है। मूलगैन (मूल-गायक) कह रहा है-
" हे हो... घोड़ा हंसराज आवे छै/
गांव में मचते तबाही हो/
कहॅ मिली क गुरू ज्योति क जय..."
( सुनो सभी, घोड़ा हंसराज आने वाला है, गांव में मचेगी अब तबाही, सब मिलकर कहो गुरू ज्योति की जय )
भले ही बेमौसम बरसात ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी है लेकिन इसके बावजूद जो कुछ फसल घर तक किसान लाए हैं उसी से वे खुश हैं। ग्राम्य गीतों के जरिए वे अपनी मन की बात रखते आए हैं। ऐसे कई गीतों को सुनते समय "देहातीत" सुख का आनंद मिलता है।
"विदापत-नाच" हो या फिर "भगैत", ये दोनों कोसी की माटी की खुश्बू को खुद में समेटी हुई है। हालांकि विदापत नाच अब खत्म हो चुका है लेकिन भगैत के प्रति लोगों का आकर्षण अभी भी बना हुआ है। "भगैत" कोसी के तकरीबन सभी जिलों में खूब गाया और बांचा जाता है।
भगैतक के तीन अंग माने गए हैं। गायन, नाट्य, और दर्शक। गायन में गीत के संग बोलचाल को शामिल किया जाता है। मंडली के सदस्यों को भगैतिया कहा जाता है। दरअसल भगैत एक ऐसा लोकगीत है, जिसमें गीत के संग-संग गायक लोगबाग को कुछ बातें भी बताता रहता है।
आप कह सकते हैं कि गीत के संग डॉयलॉग भी चलता रहता है। कहानी की शैली में गायक अपने दल के साथ भगैत गाता है। इसे सुनने के लिए झुंड के झुंड लोग उस जगह जमा होते हैं जहां भगैत होता है। 10 से 11 लोगों की एक टीम होती है जो भगैत गाते हैं।
भगैत दल के मुखिया को "मूलगैन" कहते हैं। मूलगैन गांव-घर की बोली का शब्द है, इसे आप ‘मूल-गायक’ भी कह सकते हैं। मूलगैन कहानी प्रारंभ करता है और फिर समां बंध जाता है। हारमोनियम और ढ़ोलक वातावरण में रस का संचार करते हैं। दाता धर्मराज, कालीदास, राजा चैयां और गुरू ज्योति, भगैत के मुख्य पात्र होते हैं।
भगैत सांप्रदायिक सौहार्द का शानदार उदाहरण हैं। जहां एक ओर इस गायन शैली में हिंदू पात्र होते हैं वहीं दूसरी ओर उसी सम्मान से मुस्लिम पात्र भी आपको मिल जाएंगे। दाता धर्मराद, गुरु ज्योंति जैसे हिंदू पात्रों की तरह मुस्लिम समुदाय के लिए "मीरा साहेब " प्रमुख पात्र हैं।
मुस्लिम के लिए होने वाले भगैत को "मीरन" कहा जाता है। यहां बोली जाने वाली ठेठ मैथिली में भगैत और मीरन गाया जाता है। गौर करने लायक बात यह है कि इस कथा-गीत में अंधविश्वास सिर-चढ़कर बोलता है। मसलन मूलगैन पर भगवान आ जाते हैं। वह जो कुछ बोल रहा है, वह ईश्वर-वाणी समझी जाती इस कार्यक्रम बलि-प्रथा और मदिरा की खूब मांग होती है।
48 घंटे तक अनवरत चलने वाले इस कार्यक्रम का आयोजन अक्सर गांव के बड़े भू-पति हीं करते हैं। क्योंकि इसके आयोजन में अच्छा-खासा खर्च होता है। अक्सर फसल कटने के बाद हीं ऐसे आयोजन होते हैं। क्योंकि उस वक्त किसान के पास अनाज और पैसे कुछ आ ही जाते हैं।
भगैत के इन सभी पक्षों पर नजर दौड़ाते हुए हमें यह भी समझ में आता है कि गायन की यह शैली म्यूजिक थेरेपी का भी काम करती है। हाल ही में एक भगैत में शामिल होने का मौका मिला तो वहां मैंने देखा कि एक बीमार आदमी को गीत के जरिए स्वस्थ किया जा रहा था।
गीत के विभिन्न रागों और आवाज के उतार-चढ़ाव के जरिए उस बीमार आदमी को हमने सामान्य अवस्था में चलते हुए पाया। दरअसल यह भगैत का एक दूसरा पक्ष है, जिस पर लंबी चर्चा हो सकती है, बहस की गुंजाइश है लेकिन इन ये भी सत्य है कि भगैत एक कला के रूप में अलग हीं दुनिया बसाता है, जिस दुनिया में गांव-घर के लोग आनंद खोजते हैं, सुख की तलाश करते हैं, दुख के बादल छंट जाने की प्रार्थना करते हैं।
कोसी के ग्राम्य संस्कृति में भगैत रच-बस गया है। हर साल गांव के लोग फसल कटने के बाद भगैत में डूब जाते हैं। भगैत के गायन शैली में वे सुख-दुख से ऊपर उठकर खो जाते हैं। चलत-चलते हम आपको भगैत गायन की एक पंक्ति सुनाना चाहेंगे, जिसमें गांव में भविष्य में आने वाली विपत्ति के प्रति गांव वालों को सचेत किया गया है। मूलगैन (मूल-गायक) कह रहा है-
" हे हो... घोड़ा हंसराज आवे छै/
गांव में मचते तबाही हो/
कहॅ मिली क गुरू ज्योति क जय..."
( सुनो सभी, घोड़ा हंसराज आने वाला है, गांव में मचेगी अब तबाही, सब मिलकर कहो गुरू ज्योति की जय )
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