Sunday, June 22, 2014

बाबूजी की आंखें

अब लिखा नहीं जाता है,
दिन और रात बस अब
खोना अच्छा लगता है
जबसे बाबूजी को अस्पताल से घर लाया हूं
लगता है
लिखना और जीना दोनों ही
बहुत अलग चीज है
जो लिख देते हैं
वो सच में
बड़ी खूबसूरत दुनिया देखते हैं
और जो लिख नहीं पाते
वो देखते हैं...भोगते हैं
जीवन के उतार-चढाव को
आज जाने कितने दिनों बाद
जब कुछ लिखने का मन किया तो
मुक्तिबोध याद आए
रविवार की इस तपती दुपहरी में
उनकी कविता याद आई
बिस्तर पर लेटे
टूक-टूक देख रहे बाबूजी
और बाबूजी की दो आंखें
आंखों में आंसू .....
पिछले साल ही उनकी आंखों में
लगी थी दो लैंस..
दिल्ली की किसी अस्पताल में
आशा के साथ कि
अब आंखों में आंसू नहीं आएंगे
पर किसको पता था कि
आंखों में आंसू आना तो
नियम है जीवन का
दुख और सुख का व्याकरण
सचमुच में बड़ा जटील है
अब जान गया कि जीवन एक
लंबी कविता है
जिसमें कहानी भी है
उपन्यास भी...
मेरे लिए फिलहाल
जीवन की कहानी अमीर खुसरो की वह लाईन है
जिसमें वे कहते हैं- बहुत कठिन है डगर पनघट की.....

4 comments:

  1. Anonymous6:10 PM

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  2. Anonymous6:10 PM

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  3. Anonymous6:14 PM

    जीवन है झा जी...जो सम्मुख आए, स्वीकार करना पड़ता है।
    बाबूजी की आंखों ने भी कितने बसंत-पतझड़ देखे होंगे, जीवन के कितने कड़वे व मीठे उतार-चढ़ाव का रसास्वादन किया होगा; आज उन आंखों से बहते आंसुओं में न जाने कितने रंग हैं, कितनी तस्वीरें हैं, उसको दिखिएगा तो कहीं आपकी भी तस्वीर नजर आएगी।
    आपने उन आंसुओं के कई आयामों को निरखा है, अच्छा लगा.

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  4. Anonymous6:15 PM

    जीवन है झा जी...जो सम्मुख आए, स्वीकार करना पड़ता है।
    बाबूजी की आंखों ने भी कितने बसंत-पतझड़ देखे होंगे, जीवन के कितने कड़वे व मीठे उतार-चढ़ाव का रसास्वादन किया होगा; आज उन आंखों से बहते आंसुओं में न जाने कितने रंग हैं, कितनी तस्वीरें हैं, उसको दिखिएगा तो कहीं आपकी भी तस्वीर नजर आएगी।
    आपने उन आंसुओं के कई आयामों को निरखा है, अच्छा लगा.

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