अंचल में धनरोपनी की कथा |
अंचल में कथावाचक ने पांव रखने की कोशिश की है ताकि उसके भीतर के कथा को
विस्तार मिल सके। ‘आहा! ग्राम्य जीवन’ कहने वालों को वह अपने
अंदाज में कथा सुनाना चाहता है शायद यही उसकी जिद भी है। वैसे जिद बड़ी हसीन चीज होती
है, देखिए न कथावाचक चलने की जिद कर रहा है लेकिन वह उस भरम को छूना नहीं चाहता जिसमें
बार-बार यह बताया जाता है कि ‘चल तो तू पड़ा है, फासला
बड़ा है…।‘
जिद के बहाने कथावाचक कथा बांचना चाहता है। तो साहेबान, एक जिद जमीन की भी होती है, जिसके संग कागज का मोह जुड़ा है।
कागज भी कमाल का..जमीन की दिशा-दशा-मालिकाना सब कागज की उस पुड़िया में बंधी रहती है और जिद देखिए हर कोई उसे अपने हिस्से रखने की जुगत में लगा रहता है।
अंचल में आकर कथावाचक ऐसे ही कागजातों के फेर में पड़ गया है। कितनी मायावी होती है जमीनी कागजात। खेसरा, रकबा, खाता... परती परिकथा-कथा अनंता। इन शब्दों के फेर में उसे अपने प्रिय कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की लिखी बातें याद आने लगती है..।
अंचल में कोसी प्रोजेक्ट के नहर पर ऊंचाई से खेतों में पसरे हरे-हरे धान को निहारते हुए वह जमीन के मालिकाना हक की एबीसीडी पढ़ने लगता है, ऐसे में उसकी कथाएं भी नहर की भांति हाव-भाव दिखाने लगती है। एक ऐसा भी वक्त था जब वह जीवन की किताब में ऐसे रंगों से परहेज करता था लेकिन अब वह उसी डफली में जीवन का राग आलापने लगा है।
बाउंड्री, अमीन, जमीन सब उसे रंगरेज क तरह खींचने लगे हैं। सर्वे-सेटलमेंट-डिग्री...आदि-आदि। इन सबके बीच भी उसके भीतर का मानुष बुदबुदाते रहता है- “ हर करम के कपड़े मैले हैं.....“
सचमुच जीवन के प्रपंच में कपड़े सफेद रह जाएं यह तो हो नहीं सकता। अंचल का
जीवन ऐसे ही मैले कपड़ों की आवृति है। गणित से डरने वाला अर्थशास्त्र के संग डुबकी
लगाने लगा है।
अंचल में जिद की कथा ऐसे ही चलती है। मन जिद्दी होने चला है लेकिन मन पर लगाम कसने के लिए अभ्यास की जरुरत है। कथावाचक का गीता में छपे उस श्लोक पर ध्यान टिक जाता है, जिसमें कृष्ण कहते हैं- “मन चंचल बहुत है, पर मन को वैराग्य और अभ्यास से वश में किया जा सकता है।“ लेकिन कथावाचक इन सबसे अभी दूर है, और दूर रहना भी चाहता है।
दरअसल उसके हिस्से में जिद्दी मन आ टपका है, वह उसे भी जीवन के अवयव की तरह देखना चाहता है। जैसे कबीर ने कहा है-“राम हमारा हमे जपे रे, हम पायो विशराम” इन सब प्रपंचों और जिद्द के संग कथावाचक गाम के कबिराहा मठ में बैठना नहीं भूलता। वहां की बातें वह सुनता रहता है और मठ के सामने सैकड़ों एकड़ परती जमीन को निहारते रहता है।
देखिए न यह लिखते वक्त उसके भीतर फिल्म ‘गुलाल’ का यह गीत भी बज चला है-
“चल तो तू पड़ा है,
अंचल में जिद की कथा ऐसे ही चलती है। मन जिद्दी होने चला है लेकिन मन पर लगाम कसने के लिए अभ्यास की जरुरत है। कथावाचक का गीता में छपे उस श्लोक पर ध्यान टिक जाता है, जिसमें कृष्ण कहते हैं- “मन चंचल बहुत है, पर मन को वैराग्य और अभ्यास से वश में किया जा सकता है।“ लेकिन कथावाचक इन सबसे अभी दूर है, और दूर रहना भी चाहता है।
दरअसल उसके हिस्से में जिद्दी मन आ टपका है, वह उसे भी जीवन के अवयव की तरह देखना चाहता है। जैसे कबीर ने कहा है-“राम हमारा हमे जपे रे, हम पायो विशराम” इन सब प्रपंचों और जिद्द के संग कथावाचक गाम के कबिराहा मठ में बैठना नहीं भूलता। वहां की बातें वह सुनता रहता है और मठ के सामने सैकड़ों एकड़ परती जमीन को निहारते रहता है।
देखिए न यह लिखते वक्त उसके भीतर फिल्म ‘गुलाल’ का यह गीत भी बज चला है-
“चल तो तू पड़ा है,
फासला बड़ा है
जान ले अंधेरे के सर पे खून चढा है
जान ले अंधेरे के सर पे खून चढा है
मुकाम खोज ले तू
मकान खोज ले तू
इंसान के शहर में इंसान खोज ले तू…
मकान खोज ले तू
इंसान के शहर में इंसान खोज ले तू…
ReplyDeleteचल तो तू पड़ा है,
फासला बड़ा है
जान ले अंधेरे के सर पे खून चढा है
मुकाम खोज ले तू
मकान खोज ले तू
इंसान के शहर में इंसान खोज ले तू
मन को छू गई बातें दिल के करीब
गीत की तरह बहती कथा.
ReplyDeletewaah!
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