Thursday, May 31, 2012

'सूतल निंदिया जगाए भोरे-भोरे'


जीवन में यात्रा की चटनी सबसे अधिक जायकेदार होती है, वो भी छोटी-छोटी यात्राओं की। गर्मी में आम और पुदीना को पीसकर बनाई गई चटनी की तरह हम यात्राओं में हरे रंग की तलाश करते हैं। हम यात्रा करते हैं, जगह देखते हैं, लोगबाग से परिचित होते हैं और फिर एक अलसायी भोर सूरज को निहारते हुए पूछते हैं कि क्या जीवन में भी हर रोज सूर्योदय होता है?

दरअसल कथावाचक हमेशा से यात्राओं की तलाश में रहा है क्योंकि उसे यात्राओं में गीतों की तलाश रहती है। कुछ दिन पहले पटना निकलते हुए भी वह गीत के बारे में ही सोच रहा था। कुमार गंधर्व उसके मन में बज रहे थे-
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो.. वहीं दूसरे ही पल वडाली बंधु उसकी कान में बज रहे थे- मौसम बदले चोला, रंग बसंती आए, सरसों पीली धूप से छनती छनती आए..मैं भी पीली पड़ गई, ऐसा रंग उड़ा.

होता यह है कि गीत सुनते हुए
कथावाचक को हमेशा से राग की प्यास लगती रही है, पटना की उस सुबह में भी उसे राग की ही प्यास लगी थी। पटना की भोर अलसायी नहीं थी, उसमें चाहत का आलाप था। वहां पहुंचकर कथावाचक की जिससे मुलाकात होती है वह खुद में गीतों का समंदर था।

गीतों के समंदर हैं संजय के. चौधरी। साहेबान के शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत की लाइब्रेरी देखकर कथावाचक की प्यास इतनी बढ़ गई कि वह कुछ पल के लिए खो सा गया। बरसों पहले दिल्ली के बतरा सिनेमा में देखा गया फिल्म मकबूल का यह गीत उसके कानों में खुदबखुद बजने लगा-
तू मेरे रूबरू है, मेरी आंखों की इबादत है/ ये जमीं मोहब्बत की, यहां मना है खता करना/ सिर्फ सजदे में गिरना है और अदब से दुआ करना।

जब मकबूल का सूफियाना ट्रैक मन में बज रहा था
, उसी वक्त पता चला कि जीवन की तमाम प्रपंच के बीच मन में संगीत को बचाए रखने की भी एक तरकीब होती है। यही तरकीब संजय भाई के पास है। कोसी के इलाकों में बांचे जाने वाले भगैत उसके खयाल में आ जाता है। मूलगैन (मूलगायक) याद आता है, जो अनुभवों की गीता बांचता है। संगीत को अपने भीतर रखना भी एक कला है। संजय भाई गीतों में डूबे रहते हैं, बांसुरी की धुन सुनाते हैं, तबले की थाप पर मन बावरा करते हैं, कथावाचक साधो-साधो करने लगता है, ठीक कबिराहा मठ पर मिलने वाली शांति की तरह।

कथावाचक संजय भाई को सुनते हुए चुप्पी साधे रखता है। दरअसल वह हर मुलाकात की शुरुआत में श्रोता की भूमिका में रहता आया है ताकि सुन सके अधिक से अधिक बात। जीवन में श्रोताओं का अभाव उसे खलता है, सब अपनी ही बातों में उलझे रहते हैं। ऐसे में उलझन समेटने के लिए वह सुनता है, खासकर जब आगे वाला सधा हुआ वक्ता हो और संगीत में डूबा हो। संजय भाई उसे इन्हीं मापदंडों पर चलते हुए यात्री लगे। 

तो संजय भाई से एकदिवसीय मुलाकात में संगीत ही सबकुछ रहा
। कथावाचक इसे संगीत-संगत कहेगा। राग- मांड  में शोभा गुर्टू की आवाज में जब संजय भाई ने अँखियन डारो जी गुलाल..नंदलाल सुनाया तो कथावाचक के भीतर रंगरेज की तलाश और तेज हो गई। हद और अनहद रंगने के लिए मन मचल उठा। संजय भाई जहां पंडित विदुर मल्लिक और प्रेमकुमार मल्लिक की आवाज में नाहि बनेगी गिरधारी, हमारी-तोरी...नाहि बनेगी... सुनाते हैं वहीं उनका एक दुर्लभ साक्षात्कार सुनाकर मन के भीतर संगीत के प्रति आस्था और बढ़ा देते हैं। ऐसे ही पल पता चलता है कि आस्था क्या है। 

इन सबके बीच पटना की उस अलबेली दुपहरिया में कथावाचक को आबिदा परवीन की एक बात याद आती है-
संगीत को समझना जीवन को समझना है। वह समझ जाता है उसके लिए जीवन को समझना संभव नहीं है। दरअसल वह भटकाव में आलाप करता है। सूफी के प्रति आत्मीयता की वजह से वह संजय भाई के शास्त्रीय खजाने में डूबते हुए बुदबुदाता है-

ए रंगरेज़ मेरे रंगरेज़ मेरे
/ एक बात बता रंगरेज़ मेरे
ये कौन से पानी में तुने/कौन सा रंग ये घोला है

तभी उसे गुलजार की आवाज सुनाई देती है- फिर किसी मोड़ से उलझे पांव, फिर किसी राह ने पास बुलाया..” 

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