कोसी का कछार, लोककथा और उपन्यास, ये तीन शब्द ऐसे हैं,
जिसे पढ़कर, ऐसा कोई
भी व्यक्ति जिसे लोक में रुचि हो जरुर एक पल के लिए रुकेगा। कुछ ऐसी ही कथा को संग
लिए एक कथावाचक हाल ही में हमारी नजरों से टकराता है। रेणु साहित्य और कोसी अंचल
से आत्मिक राग महसूस करने की वजह से उस कथावाचक से अपनापा और भी बढ़ गया और हमारे
हाथ आई सुन्नैर नैका। आप सोच रहे होंगे कि आखिर बात किसकी हो रही है, तो हम बता दें कि ‘सुन्नर नैका’ एक उपन्यास है, जिसके ‘शबद नदी’ में कोसी की ऐसी कथाएं दौड़ रही है, जिसमें हम खो से जाते हैं।
उपन्यास में एक पात्र है सुरपति राय, जो कथा बांचते हैं और हम जैसे पाठकों से एक ही पल में दोस्ती कर लेते हैं। दरअसल सुन्नैर नैका शब्द कोसी अंचल की बोली से आई है, आप इसे सुंदरी नायिका भी कह सकते हैं।
कथाकार पुष्यमित्र ने इस कथा को शब्दों से बांचा है, वे अंचल को अपने मन में समेटे एक लेखक हैं। उनके पास कोसी की लोककथाओं को बांचने की लोकप्रिय विधा है, और इसी वजह से वे अपने पहले उपन्यास से ही पाठकों को खींच लेते है और हमारे संग हो जाते हैं कोसी की जात्रा पर। जात्रा इसलिए क्योंकि लेखक पुष्यमित्र खुद जात्री हैं। वे ययावर हैं, घुमते हैं, कथाओं को इकट्ठा करते हैं।
पुष्यमित्र उपन्यास की प्रस्तावना में कहते हैं- " मैंने भी इसका नाम सुन्नैर नैका ही रखा है। वह एक हवेली की राजकुमारी है जो अपने इलाके में हरियाली वापस लाने के लिए बहुत बेचैन है। करीब चार सौ साल पुरानी इस लोक कथा में कोसी नदी के दिशा बदलने और उसके कारण अररिया इलाके के एक बड़े क्षेत्र के अचानक परती में बदल जाने का जिक्र है..। "
दरअसल पुष्यमित्र अपने इसी अंदाज से कथा को विस्तार देते हैं शायद कोसी क्षेत्र को लगातार घुमते हुए उन्हें जगहों से काफी कुछ सीखने मिला है और अपने इसी अनुभव को उन्होंने शब्दों में ढाला है। वह चाहे उत्तर बिहार हो या फिर नेपाल..हर जगह लेखक ने दस्तक दी है, एक आंचलिक- जात्री की भांति।
फणीश्वर नाथ रेणु की कृति परती
परिकथा पढ़ चुके पाठकों को पुष्यमित्र लोककथाओं को नदी की भांति कल-कल बहते हुए
दिखाना चाहते हैं और शायद इसी वजह से उन्होंने सुरपति राय नामक पात्र को फिर से
मंच पर आसिन किया है। वही सुरपति राय जिसे रेणु ने परती परिकथा में घाट-बाट की कथा
इकट्ठा करने के लिए मंच पर बिठाया था।उपन्यास में एक पात्र है सुरपति राय, जो कथा बांचते हैं और हम जैसे पाठकों से एक ही पल में दोस्ती कर लेते हैं। दरअसल सुन्नैर नैका शब्द कोसी अंचल की बोली से आई है, आप इसे सुंदरी नायिका भी कह सकते हैं।
कथाकार पुष्यमित्र ने इस कथा को शब्दों से बांचा है, वे अंचल को अपने मन में समेटे एक लेखक हैं। उनके पास कोसी की लोककथाओं को बांचने की लोकप्रिय विधा है, और इसी वजह से वे अपने पहले उपन्यास से ही पाठकों को खींच लेते है और हमारे संग हो जाते हैं कोसी की जात्रा पर। जात्रा इसलिए क्योंकि लेखक पुष्यमित्र खुद जात्री हैं। वे ययावर हैं, घुमते हैं, कथाओं को इकट्ठा करते हैं।
पुष्यमित्र उपन्यास की प्रस्तावना में कहते हैं- " मैंने भी इसका नाम सुन्नैर नैका ही रखा है। वह एक हवेली की राजकुमारी है जो अपने इलाके में हरियाली वापस लाने के लिए बहुत बेचैन है। करीब चार सौ साल पुरानी इस लोक कथा में कोसी नदी के दिशा बदलने और उसके कारण अररिया इलाके के एक बड़े क्षेत्र के अचानक परती में बदल जाने का जिक्र है..। "
दरअसल पुष्यमित्र अपने इसी अंदाज से कथा को विस्तार देते हैं शायद कोसी क्षेत्र को लगातार घुमते हुए उन्हें जगहों से काफी कुछ सीखने मिला है और अपने इसी अनुभव को उन्होंने शब्दों में ढाला है। वह चाहे उत्तर बिहार हो या फिर नेपाल..हर जगह लेखक ने दस्तक दी है, एक आंचलिक- जात्री की भांति।
जितेंद्रनाथ ऊर्फ जित्तू के आउटहाउस में रहकर सुरपति राय लोककथाओं को इकट्ठा करते थे। कैमरे से माटी की तस्वीरें खींचते थे, एक शोधार्थी की तरह उन्हें स्थान से प्रेम था।
पुष्यमित्र ने लोक की मिजाज को छूते हुए सुन्नर नैका के लिए मानो एक सुव्यवस्थित मंच सजाया है। कथा के शुरुआत से लेकर अंत तक वे एक मुक्कमल कथावाचक की भूमिका में नजर आते हैं। पुष्यमित्र के सुरपति राय बार बार हमें रेणु साहित्य की याद दिलाते हैं। इसलिए हम लेखक पुष्यमित्र की लेखनी की प्रशंसा करते हैं। वे कुछ भी छिपाते नहीं दिखते हैं, सब खुलकर बांचते नजर आते हैं, ठीक उसी तरह जैसे पूर्णिया जिले के किसी गांव में भगैत बांचते हुए मूलगैन हमें सारी कथा से अवगत करता है।
सुन्नर नैका को मैं शबद नदी इसलिए कहता हूं क्योंकि इसमें बहाव ही बहाव है। हम खोते हैं, डूबते हैं और अपने हिस्से की कथा लिए यात्रा पूरी कर लेते हैं। दंत कथाओं को पुष्यमित्र ने आज के परिवेश में ऐसे पाठकों के लिए जमीं पर उतारा है, जो कोसी को तो जानता है लेकिन उससे जुड़ी कथाओं से अनभिज्ञ है। हम ऐसे पाठकों से गुजारिश करेंगे कि वे इसे जरुर पढें।
सुन्नैर नैका हर किसी के लिए है, क्योंकि इसमें लोक है, कथा और सबसे बढ़कर अंचल की परती-कथा है। रेणु परंपरा के लेखकों और पाठकों से हम ऐसी ही कथा- रिपोतार्ज आदि की उम्मीद करते हैं। पुष्यमित्र ने नौकरी के महाजाल में रहते हुए इस कथा को रचा है, इसलिए उनकी तारीफ करनी ही चाहिए।
रेणु भी तमाम काम करते हुए कथा रचते थे, जीवन को जीते थे। पुष्यमित्र की यह पहली कृति हमें काफी कुछ बताती है भाषा और लोक-विचार, दोनों स्तर पर। सुन्नर नैका में कहीं कहीं वे कथा में कथा ढूंढते भी दिखते हैं, तो आइए पढिए पुष्यमित्र के सुरपति राय के मुख से सुन्नर नैका की कथा।
इन दिनों यह कथा प्रतिलिपि पर चल रही है, पढ़ने के लिए क्लिक करें।
मूलत: संवदिया : जनवरी-मार्च 2012 में प्रकाशित
गिरिन्द्र जी पूर्णिया आया तो आपसे मुलाकात होगी... आपसे ये मुलाकात (सुन्नर नैका के जरिए) अभी आधी-अधूरी है...
ReplyDeleteझलक रोचक है, हम तो मजा किताब से ही ले पाएंगे.
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