Thursday, September 15, 2011

मोबाइल-रेडियो भाया कानपुर -1

सुबह होती है, बालकनी में टहलते हुए चाय पीता हूं, बाहर सड़क और फूल पत्तियों को निहारता हूं लेकिन हर दिन इस काम को दोहराते हुए मुन्नी बदनाम  हुई... तेरे लिए भी सुनने को मिलता है। इस आवाज को सुनने का वक्त तय है., सुबह ७.३० बजे। एक रिक्शा, जिसपर बच्चे स्कूल जाते हैं, उसी का चालक तथाकथित अपने चाइनिज मोबाइल में यह गीत बजाता है और स्कूल जाने से भयभित बच्चे रोना छोड़कर ठुमकना शुरु कर देते हैं।

पिछले एक साल कानपुर में रहते हुए इस रिक्शेवाले  से अपनापा जैसा हो चला है। जफर इरशाद नाम का यह शख्स गीत की दुनिया का महारथी लगता है लेकिन मेरी रुचि इसके रेडियो रुपी मोबाइल पर है और इसी के संग मेरी कथा शुरु होती है। रेडियो फिर मोबाइल और इसके साथ गढ़ते जा रहे इंसानी रिश्ते की दुनिया। मेरे उन सभी सवालों को सुलझाने में जफर इरशाद सहायता कर रहा है और आपका कथावाचक उस रेडियो के भीतर बसे प्रवासी मन को समझने लगा है। हालांकि वह पिछलेकई महीने से इस काम में लगा है लेकिन शब्द उसे परेशान कर रहे हैं।  

खैर, मेहनत करते हुए थक जाना नियम है, इस पर चिंता करना जायज नहीं है सो थकान को मिटाने के लिए काम के दौरान संगीत टॉनिक का काम करता है। रेडियो का इतिहास रहा है, काम के दौरान इसकी उपयोगिता गवाह रही है कि इसकी तरंगे मन को और मजबूत करती है साथ ही ध्यान भी अपनी ओर खींचती है। जफर इरशाद की बातें मुझे उसी पगडंडी की ओर ले जाती हैं जहां से मैंने यात्रा शुरु की है।  इरशाद मुझे मोबाइल में रेडियो को समेटने से पहले १० बैंड वाले काले डब्बे की कहानी सुनाता है।

वैसे यह कहानी मेरे लिए नई नहीं है क्योंकि पूर्णिया में सन २००० के आसपास इसकी धूम मची थी। पोर्टेबल रेडियो
, एकदम पेंट के पॉकेट में सिमट जाने वाला वह रेडियो अभी भी मेरे घर में कहीं दुबका पड़ा है, उसमें टीवी की तरंगे भी आती थी।

जफर इरशाद बताता है कि तब रिक्शे के आगे केरियर लगा होता था औऱ उसी में वह उस काले डिब्बे को रख दिया करता था। गीत बज उठते थे और तपती गर्मी भी 'दिल है कि मानता नहीं' गुनगुनाने लगता था। वक्त बदलता है और मोबाइल का प्रवेश घर- आंगन के साथ ही मन में भी हो जाता है।

कम मूल्य के मोबाइल
, जिसे चाइनिज नाम दिया गया है ने कामगारों के बीच अपनी वृहत पहचान बनाई। जफर इरशाद बताता है कि ऐसे मोबाइल की स्पीकर क्वालिटि बहुत ही अच्छी होती है और रेडियो की तरंगे भी बड़ी तेजी से हासिल करती है। शायद इसी वजह से मुन्नी बदनाम हुई... की सुरमय उद्घोष हर सुबह मेरे कानों में दस्तक देती है और स्कूल जाते हुए बच्चों को देखकर मैं मुस्कुरा देता हूं।

सदन झा ने संतोष रेडियो पर एक मुकम्मल लेख संतोष रेडियो ने गढ़े इंसानी रिश्ते लिखा है
, जो मीडियानगर में प्रकाशित हो चुकी है। जफर इरशाद की बातों को सुनने के कई महीने बाद मैंने सदन सर के लेख को पढ़ा तो रेडियो, आवाज और मन के तार के संग प्रवासियों को समझने की ललक बढ़ती चली गई।

जफर इरशाद की बातों के जरिए मैं सदन सर के उस लेख को विस्तार देने में जुटा हूं। उनकी कथा हमें कई विंबों पर सोचने को मजबूर करती है, ठीक वैसे ही जैसे रेडियो का बैंड बदलने से शायद फ्रीक्वेंसी बदल जाती है। वे मुझे कथा के अलग-अलग कोणों पर सोचने के लिए उत्साहित करते हैं। यह शुरुआत है, आप भी बताएं रेडियो से जुड़े अनुभवों को, अच्छा लगेगा।

6 comments:

SANDEEP PANWAR said...

वो दिन भी क्या दिन थे?

P.N. Subramanian said...

मजेदार पोस्ट. हम भी अपने जमाने को याद करने लगे. आभार.

इन्दु पुरी said...

पुराने गानों की बेहद शौक़ीन हूँ मैं आज भी.जब छोटी थी तब घर में आठ बैंड का रेडियो था.फोजी भाइयों की पसंद ,गीतों भरी कहानी,बिनाका गीत माला मैं बहुत सुनती थी.उस समय न टेप रिकार्डर थे न ही ऐसा कुछ की अपनी पसंद के गानों को आप जब चाहे सुन सके.अपनी पसंद के गाने दुबारा कब सुनने को मिलेंगे यह भी मालूम नही होता था.इससे एक फायदा यह होता था कि गाने अपनी अहमियत नही खोते थे.हा हा हा
मैं बचपन से बहुत ही दुष्ट,शरारती,नालायक थी.एक बार एक तार ले के उसका एक सिरा थ्री पिन सोकेट में दाल दिया और दूसरा ट्रांजिस्टर(छोटा सा पोर्टेबल रेडियो)के एरियल के थक करके देखा तो उसकी आवाज बढ़ी हुई लगी.मैंने स्विच ऑफ करके तार के दुसरे सिरे को ट्रांजिस्टर के एरियल पर लपेट दिया.स्विच ओन करके विविध भारती लगाने लगी.करंट का जो झटका लगा कि......
हा हा हा बढ़ी हुई दिल की धड़कन और घबराहट को आज भी महसूस क्र सकती हूँ.दरके मारे घर में किसी को बताया तक नही.बस ये सिखा कि.....बिजली करंट मारती है हा हा हा.कितनी भूली हुई बाते याद दिला दी इस एक आर्टिकल ने.जियो.

Anonymous said...

@ इंदुपुरी जी- शुक्रिया यादों के तानेबाने को यहां कतरनों में पेश करने के लिए, अच्छा लगा..बिजली का झटका और रेडियो की तरंगे पढ़कर..(हाहाहाह)

Anonymous said...

बहुत बढियां। मैं तो तुम्हें नहीं बल्कि सदन जी का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा कि वे तुम्हें उकसाते रहते हैं अच्छा लिखने के लिए। और भी कोणों पर सोचो और कथा को विस्तार दो। संजय अभिज्ञान

Patali-The-Village said...

बहुत बढियां। मजेदार पोस्ट|