Tuesday, May 10, 2011

चाहत अपनी-अपनी

फोटो साभार-PLUNDERPHONICS BLOG
मैं कितना काम करना चाहता हूं, मैं खुद भी नहीं जानता। आप मुझे कंफ्यूज कह सकते हैं लेकिन मैं इसमें भी अपना फ्यूज खोजता मिल जाउंगा।

घने जंगल और बीच में एक पगडंडी, मैं निकल पड़ता हूं। सामने एक पोखर दिखता है, मैं उसके किनारे बैठ जाता हूं। दोपहरी में एक ठंडी बयार की तलाश यहां आकर खत्म हो जाती है।

पोखर में पानी शांत दिख रहा था और मैं उसमें अपना चेहरा देखता हूं। घर से पहले 1200 और फिर 800 किलोमीटर की दूरी सब उस पानी में सिमट गई। मैं फिर वहीं लौट आया था, जहां से कभी निकाला गया था।

मैंने मोह-माया-बंधन की उपमाओं को पोखर के किनारे तैरते देखा। माया महाठगनी कहने वाले कबीर आज याद नहीं आ रहे थे। मैं क्या करना चाहता हूं, आज उसे मूर्त रुप देने की ठान चुका था।

लेकिन, तभी मुझे एक साथ कई लोगों के चीख-पुकार सुनाई दी, फिर आग की लपट। देखा सैकड़ों लोग उसी पोखर में कूद गए, जिसके किनारे मै बैठा हूं।


अजीब बैचेनी महसूस हो रही थी लेकिन कुछ देर में ही सब कुछ शांत, पहले की तरह। लोग एक-एक कर पोखर से बाहर आने लगे, फिर एक जगह इकट्ठा हुए और उसी में से एक बूढ़े शख्स ने मेरे दाहिने हाथ को थामकर कहा, अब आप यही रहेंगे......।

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