गतांक से आगे
कि तभी हमें इशाहपुर (मधुबनी जिला) के पासी टोले की कहानी याद आ जाती है। रामबाबू पोखर के करीब एक बस्ती में ताड़ी बेचने वाले सुबह शाम अपनी झोपड़ी के आगे बोतल में सफेद ताड़ी लेकर बैठते हैं और लोगबाग पहुंचते हैं उसे गडकने के लिए। आप सोचेंगे कि यहां पासी टोला का जिक्र क्यों हो रहा है, दरअसल उस पार का पासी टोला इस पार आकर संथाली टोला में समा जाता है (केवल स्वभाव अनुसार)। कोसी डिवाइड कथा में संथालों का जिक्र हो और जमीन को लेकर पूर्णिया जिले के कई कामतों में हुए खूनी संघर्ष की बात न हो तो हमारी स्क्रिप्ट अधूरी रह जाएगी। आइए, आज हम इसी के आसपास शब्दों का तानाबाना रचते हैं।
संथाल-भूमि-पुत्र
हम इस पार आने के बाद कई चीजों से रूबरू हुए, उसमें एक संथाल भी है। इतिहासकार इसे जो कहें, लेकिन हम इसे संथाल संस्कृति कहेंगे। हम यहां ज्यादा खुश तब होंगे जब कोई इतिहासकार, कथाकार के रूप में इस मिट्टी की कहानी को बांचे। खैर, झारखंड बनने से बरसों पहले दक्षिण बिहार से आए लोग कोसी के परती इलाकों में बसते हैं, बसाए जाते हैं, मेहनत करते हैं फिर इनमें से कुछ भूमि के मालिकाना हक को भी हासिल करते हैं। 2006 में अररिया के बथनाहा इलाके में जाना हुआ था, वहां एक बुजुर्ग ने कोसी के संथालों को लिए बड़ा मोहक शब्द इस्तेमाल किया था- भूमि-पुत्र।
बसते-बसते बसती है बस्ती
इस पार एक ही गांव में आपको संथालों की दो-दो बस्तियां मिल जाएंगी। दरअसल ग्रामीण अंचलों में एक ही समुदाय के लोगों की दो बस्तियां कॉमन नहीं है। सामूहिक निवास परंपरा अभी भी ग्राम्य संस्कृति में रची बसी है। शहर के लोग इसे सोसाइटी के फ्लैट कल्चर से जोड़ सकते हैं। खैर, चनका में संथालों की दो बस्तियां हैं। हम अचरज करते हैं फिर इसके तह में जाने की कोशिश करते हैं। फिर महसूस होता है कि बड़े किसान ने अपनी जमीन और जान की रक्षा के लिए हजारों एकड़ जमीन में से कुछ सौ एकड़ परती भूमि ऐसे संथालों को रहने के लिए दिए, जिनपर उन्हें भरोसा था।
वे बड़े किसान के भरोसेमंद होते चले गए। कालांतर में (1960 के बाद से) जब कोसी में संथाल एक पॉलिटिक्स कार्ड बन गया तो फिर जिले के अन्य गांवों से भूमिहीन संथाल किसानों को अलग-अलग गांवों में बसाने की कवायद शुरु हुई। यहीं आकर इस पार की कथा हिंसक हो जाती है। जबरन, हथियाना जैसे शब्द कोसी डिवाइड कथा के साथ जुड़ने के लिए बैचेन होने लगते हैं।
कोसी के ग्रामीण इलाकों में या कहें कामतों पर हुए हिंसक घटनाओं पर छपे शोध रिपोर्ट के हवाले से बात को आगे बढ़ाने से पहले हम संथालों के घरों की ओर रुख करना चाहेंगे। मि्टटी के बने इतने खूबसूरत घर हमने तो नहीं देखे हैं। दीवारों पर हाथ जबतक आप न फेरेंगे तबतक यकीन ही नहीं होता कि ये मिट्टी की दीवार है। आशियाने की साफ-सफाई कैसे रखी जाती है, ये कोई संथालों से सीखे। जमाना कितना भी आगे बढे शिकार की आदत आज भी यहां के संथालों में बनी हुई है। वे आज भी तीर-धनुष से शिकार करते हैं। हट्टा (जंगली बिल्ली) मारते हैं, सिल्ली फंसाते हैं, आदि-आदि। कहा तो जाता है कि तीर के नोक पे वे जहरीला पेस्ट लगाते हैं। फिर दिनभर की मेहनत के बाद शाम होते ही बस्ती में लौटना और देशी शराब व ताड़ी में डूब जाना इनकी रुटिन लाइफ का बेहद अहम हिस्सा है। इस पार कहावत है - सूरज अस्त, संथाल मस्त...।
अभी एक गीत गुनगुनाने की इजाजत मांगूगा। आप सोच रहे होंगे कि यह आदमी कितना विषयांतर होता है, पर यह तो आदत से मजबूर है। फिल्म है हमदोनों। आपसे भी साथ देने का भरोसा रखता हूं-
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कचहरी और कामत से आगे बढ़ने का फिलहाल जी नहीं कर रहा है। अभी-अभी विभूतिभूषण बंद्योपाद्याय की कृति ‘आरण्यक’ पूरा किया है। बंगाल के एक बड़े जमींदार की हजारो एकड़ जमीन को रैयतो में बांटने के लिए एक मैनेजर पूर्णियां जिले के एक जंगली इलाके में दाखिल होता है। जिस कथा शिल्प का विभूति बाबू ने ‘आरण्यक’ में इस्तेमाल किया है उसे इस पार के लोग अच्छी तरह से समझ सकते हैं या फिर जमीन के मालिकाना हक और उसे बेचने व बटाई पर देने की जानकारी वाला उस पार का शख्स ही इसके मैथमैटिक्स को सॉल्व कर सकता है। एक डायरी उपन्यास बन सकती है, ‘आरण्यक’ इसका उदाहरण है। साहित्य के जानकार और आलोचकों की राय इससे इतर हो सकती है। बहरहाल, कोसी के इलाके में संथालों की उपस्थति को भी समझने की जरूरत आ पड़ती है। हमारी कोसी डिवाइड की कथा इसके बिना अधूरी हो जाएगी।
ताड़ी के बहाने
कि तभी हमें इशाहपुर (मधुबनी जिला) के पासी टोले की कहानी याद आ जाती है। रामबाबू पोखर के करीब एक बस्ती में ताड़ी बेचने वाले सुबह शाम अपनी झोपड़ी के आगे बोतल में सफेद ताड़ी लेकर बैठते हैं और लोगबाग पहुंचते हैं उसे गडकने के लिए। आप सोचेंगे कि यहां पासी टोला का जिक्र क्यों हो रहा है, दरअसल उस पार का पासी टोला इस पार आकर संथाली टोला में समा जाता है (केवल स्वभाव अनुसार)। कोसी डिवाइड कथा में संथालों का जिक्र हो और जमीन को लेकर पूर्णिया जिले के कई कामतों में हुए खूनी संघर्ष की बात न हो तो हमारी स्क्रिप्ट अधूरी रह जाएगी। आइए, आज हम इसी के आसपास शब्दों का तानाबाना रचते हैं।
भाया सदन झा
सदन सर ने संथालों को लेकर कुछ जानकारी मुहैया कराई है (हमारी भाषा में खुराक)। उन्होंने पूर्णिया जिले के धमधाहा क्षेत्र में हुए संथाल संघर्ष पर हुए कुछ शोध रिपोर्ट्स की पीडीएफ भेजी, तो हमने उसे शब्द-दर-शब्द पढ़ा ताकि 1940 से 1985 के बीच हुए जमीन को लेकर हुए हिंसक घटनाओं की बारिकियों को महसूस किया जा सके। हमारा मानना है कि किसी इलाके पर काम करते वक्त केवल देखने से, बातों से और आक्राइव्स से जानकारी हासिल कर शोध कार्य पूरा नहीं हो सकता। आप कह सकते हैं कि इसमें रिसर्चर को संतुष्टि नहीं मिलती है। संतुष्टि के लिए हमें लोगबाग को महसूस भी करना होता है। इसलिए हमने महसूस शब्द का इस्तेमाल किया है।
संथाल-भूमि-पुत्र
हम इस पार आने के बाद कई चीजों से रूबरू हुए, उसमें एक संथाल भी है। इतिहासकार इसे जो कहें, लेकिन हम इसे संथाल संस्कृति कहेंगे। हम यहां ज्यादा खुश तब होंगे जब कोई इतिहासकार, कथाकार के रूप में इस मिट्टी की कहानी को बांचे। खैर, झारखंड बनने से बरसों पहले दक्षिण बिहार से आए लोग कोसी के परती इलाकों में बसते हैं, बसाए जाते हैं, मेहनत करते हैं फिर इनमें से कुछ भूमि के मालिकाना हक को भी हासिल करते हैं। 2006 में अररिया के बथनाहा इलाके में जाना हुआ था, वहां एक बुजुर्ग ने कोसी के संथालों को लिए बड़ा मोहक शब्द इस्तेमाल किया था- भूमि-पुत्र।
बसते-बसते बसती है बस्ती
इस पार एक ही गांव में आपको संथालों की दो-दो बस्तियां मिल जाएंगी। दरअसल ग्रामीण अंचलों में एक ही समुदाय के लोगों की दो बस्तियां कॉमन नहीं है। सामूहिक निवास परंपरा अभी भी ग्राम्य संस्कृति में रची बसी है। शहर के लोग इसे सोसाइटी के फ्लैट कल्चर से जोड़ सकते हैं। खैर, चनका में संथालों की दो बस्तियां हैं। हम अचरज करते हैं फिर इसके तह में जाने की कोशिश करते हैं। फिर महसूस होता है कि बड़े किसान ने अपनी जमीन और जान की रक्षा के लिए हजारों एकड़ जमीन में से कुछ सौ एकड़ परती भूमि ऐसे संथालों को रहने के लिए दिए, जिनपर उन्हें भरोसा था।
वे बड़े किसान के भरोसेमंद होते चले गए। कालांतर में (1960 के बाद से) जब कोसी में संथाल एक पॉलिटिक्स कार्ड बन गया तो फिर जिले के अन्य गांवों से भूमिहीन संथाल किसानों को अलग-अलग गांवों में बसाने की कवायद शुरु हुई। यहीं आकर इस पार की कथा हिंसक हो जाती है। जबरन, हथियाना जैसे शब्द कोसी डिवाइड कथा के साथ जुड़ने के लिए बैचेन होने लगते हैं।
संथाली मन
कोसी के ग्रामीण इलाकों में या कहें कामतों पर हुए हिंसक घटनाओं पर छपे शोध रिपोर्ट के हवाले से बात को आगे बढ़ाने से पहले हम संथालों के घरों की ओर रुख करना चाहेंगे। मि्टटी के बने इतने खूबसूरत घर हमने तो नहीं देखे हैं। दीवारों पर हाथ जबतक आप न फेरेंगे तबतक यकीन ही नहीं होता कि ये मिट्टी की दीवार है। आशियाने की साफ-सफाई कैसे रखी जाती है, ये कोई संथालों से सीखे। जमाना कितना भी आगे बढे शिकार की आदत आज भी यहां के संथालों में बनी हुई है। वे आज भी तीर-धनुष से शिकार करते हैं। हट्टा (जंगली बिल्ली) मारते हैं, सिल्ली फंसाते हैं, आदि-आदि। कहा तो जाता है कि तीर के नोक पे वे जहरीला पेस्ट लगाते हैं। फिर दिनभर की मेहनत के बाद शाम होते ही बस्ती में लौटना और देशी शराब व ताड़ी में डूब जाना इनकी रुटिन लाइफ का बेहद अहम हिस्सा है। इस पार कहावत है - सूरज अस्त, संथाल मस्त...।
विषयांतर होने की इजाजत
अभी एक गीत गुनगुनाने की इजाजत मांगूगा। आप सोच रहे होंगे कि यह आदमी कितना विषयांतर होता है, पर यह तो आदत से मजबूर है। फिल्म है हमदोनों। आपसे भी साथ देने का भरोसा रखता हूं-
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया 2
बर्बादियों का शोक मनाना फिजूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया..
जो मिल गया उसी को मुक्कदर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भूलाता चला गया
हर फिक्र को धुएं में ..
गम और खुशी में फक्र न महसूस हो जहां
मैं दिल को उस मकाम पे लाता चला गया
जिंदगी का साथ निभाता चला गया
आगे पढिए- संथालों के खूनी संघर्ष के विभिन्न पहलू। साथ ही एक ऐसी संथाली बस्ती, जिसका नाम है पाकिस्तानी टोला।
Simply great
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