Monday, March 21, 2011

छान के मोहल्ला सारा देख लिया...


होली सबके लिए खास ही होती है, दरअसल रंग-गुलाल की धमक और महक ही ऐसी होती है कि हर कोई इसके चक्कर में रंगीला बन जाता है। मैं भी कोई अपवाद नहीं हूं इसलिए होली के रंग में यह आम भी खास बन गया। पिछले आठ सालों से एक शहर जो मुझे रंगा करता था, इस बार उससे दूर रहा, जी मैं जिक्र हर दिल अजीज दिल्ली का कर रहा हूं।

इस बार दिल्ली के बदले मेरा अड्डा कानपुर रहा। यहां पिछले नौ महीने से पैर जमाये हुए हूं। खैर
, शहर-दर-शहर के चक्कर में होली ही एक ऐसा दिन होता है जो देश के हर शहर-गांव को एक बना देता है। इस दिन यह मायने नहीं रखता कि मैं शिप्रा (इंदिरापुरम, गाजियाबाद) में होली खेल रहा हूं या फिर बसंतकुंज (दिल्ली) में। बाल्टी में रंगीन पानी तो हर जगह एक ही होगा न...।

किसी को रंगीन करने के लिए रंग का एक पुडिया ही काफी होता है
, तो बाल्टी तो बड़ी चीज हुई। खैर, कानपुर की होली भी मेरे मेमोरी लेन में अपनी जगह बना चुकी है। मैंने इसका नामकरण छान के मोहल्ला सारा देख लिया रखा है। सुबह-सुबह घर में गुलाल ने गुड मार्निंग कहा तो मन ने कहा- गुरु, आज तो तुम होली का जमकर मजा लोगे। हर किसी के मन की बात अक्सर सच हो जाती है, यदि कनेक्शन दिल का रहे।

हम कानपुर के कैलाश नगर नामक इलाके में रहते हैं
, यह एयर फोर्स स्टेशन के करीब है साथ ही कानपुर-लखनऊ नेशनल हाइवे के भी बेहद करीब। सुबह के १० बजे से मेरी होली शुरु हुई, जो मोहल्ले के ताने-बाने से आगे निकलकर ड्राइंगरूम में समा गई। यहां की खासियत मुझे टोली लगी। हम घर-घर घुमकर लोगों को जमा करते रहे और इस तरह हमारा कारवां बनता गया।

मोहल्ले के जिस घर में गए
, वहां मेजबान ने पहले हमें रंग से धोया और फिर सामने लजीज पकवान ऱखते चले गए। पानी से तरबतर गुजिया, गुलाबजाबुन और नमकीन का आनंद हमने इस अंदाज में पहली बार लिया था। मैं खुद पे ताज्जुब कर रहा था कि मोहल्ले के लगभग १०० घरों में हमने दस्तक दी।

हमारे साथ ढोलक की फौज थी
, कुछ नौजवान साथी, जो पंजाबी स्टाइल में डांस कर रहे थे। कुछ बुजुर्ग साथी थे जो भांग चख कर गालिब बन गए थे। शायरी के आरंभ के दौरान ढोलक की थाप को वे रूकवा देते थे ताकि हर कोई उनकी फोटोकॉपी शायरी पर वाह-वाह कर सके।

दोपहर तक पांव थक गए थे लेकिन मन का रंग गाढ़ा ही होता जा रहा था। अंत में मैंने  ढेरों दोस्तों को अपने घर लाया
, ये सभी दो घंटे में दोस्त बने थे, वो भी पक्के दोस्त। हमारे चेहरे में कोई अंतर नहीं था, वो भी रंगीन थे और मैं भी। मैंने भी मेजबान का धर्म निभाया, दोस्तों को मालपुआ और दहीबाड़ा खिलाया। फिर सबसे जुदा होने का वक्त आया, सब अपने-आपने आशियाने की ओर मुड़ गए और मैं भी अपने ड्राइंग रूम में पसर गया...

तभी मन में पंडित छन्नू लाल मिश्रा की दिव्य आवाज सुनाई दी। मेरी होम मिनिस्टर ने साथ दिया और लेपटॉप से पंडित जी की आवाज आने लगी-


खेलैं मसाने में होरी दिगंबर खेले मसाने में होरी ।
भूत पिसाच बटोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी ।।

लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के
चिता-भस्‍म भर झोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी ।।

गोपन-गोपी श्‍याम न राधा, ना कोई रोक ना कौनऊ बाधा
ना साजन ना गोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी ।।

नाचत गावत डमरूधारी, छोड़ै सर्प-गरल पिचकारी
पीतैं प्रेत-धकोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी ।।

भूतनाथ की मंगल-होरी, देखि सिहाएं बिरिज कै गोरी
धन-धन नाथ अघोरी दिगंबर खेलैं मसाने में होरी ।।

5 comments:

  1. बहुत अच्छा...ऐसी होली दिल्ली में नहीं होती....

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  2. Anonymous1:49 AM

    गिरीन्द्र, आपने दिल जीत लिया। आप लिखकर शब्द को हमारे और करीब ला देते हैं। मजा आ गया।
    राजेश पुरी, इलाहाबाद

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  3. Anonymous1:54 AM

    दिल्ली और कानपुर की दूरी पाट दी आपने।
    पूजा

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  4. गिरीन्द्र जी, पहली बार आपके ब्लॉग पर आने का सोभाग्य हुआ , इस होली का खूब लुत्फ़ उठाया है , जो आपकी इस पोस्ट से झलक रहा है !

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