मैंने तुम्हारे दुख से अपने को जोड़ा और- और अकेला हो गया / मैंने तुम्हारे सुख सेअपने को जोड़ा/ और -और छोटा हो गया / मैंने सुख-दुख से परेअपने को तुम से जोड़ा और -और अर्थहीन हो गया
यह सर्वेश्वल दयाल सक्सेना की कविता- रिश्ते की खोज की पंक्तियां है। इन पंक्तियों का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं क्योंकि हम सभी जो शहर-दर-शहर घूमते हैं, वे दरअसल रोजी-रोटी के साथ रिश्ते भी बनाते हैं। ऑफिस से लेकर सोसाइटी तक हम-आप सभी रिश्तों की बस्ती बसाते हैं। दिल्ली से कानपुर में रोजी-रोटी की व्यापक दुनिया बसाने के लिए जब हमदोनों प्लानिंग बना रहे थे तो एक साथ कई सवाल मन में उठने लगे थे कि उस शहर को जिसे हम छोड़कर जा रहे हैं और जहां हम बसने जा रहे हैं, लोगों से यारी कैसे होगी .. क्यां वहां भी हमें दिल्ली की तरह ही यारों को बस्ती आसानी से मिल जाएगी.. ऐसे कई सवालों को लिए हम कानपुर में दाखिल हुए, एक नए शहर और नए लोगों से दोस्ती की आस लिए...।
छह महीने गुजारने के बाद मैं कह सकता हूं कि हमदोनों यहां लोगों से मिलने- जुलने में कामयाब हुए। ऑफिस औऱ ऑफिस से परे भी एक दुनिया बसाने में कामयाब हुए। कल शाम की ही बात है हमें एक शहरी ने बच्चे के जन्मदिन के बहाने शाम खाने पे बुलाया। शहरी हैं दिनेश श्रीनेत, जो हमारे वरिष्ठ सहकर्मी भी हैं । ऑफिस से संबंध रहने के बावजूद भी मेरा यह मानना होता है कि इस संबंध को ऑफिस कैंपस तक ही रखें, बाहर निकलकर सब एक हो जाएं. संयोग से मेरे साथ यही होता है। दिनेश श्रीनेत के घर हमारी मुलाकात ढेर सारे बच्चों से होती है। अलग-अलग स्वभाव के बच्चे, शरारती बच्चे..। इन बच्चों को देखकर मेरे बचपन का मानस रिप्ले हो गया। कल शाम बच्चों के उन्मुक्त स्वभाव को देखकर बस एक ही सवाल मन में हिचकोले मार रहा था कि क्या हमारा बचपन ऐसा ही था ? यह सवाल कम्लिसिटी की वजह से नहीं बल्कि बेबाक होते बचपन को लेकर उठा था। बच्चे के जन्मदिन की पार्टी थी, इसलिए मेजबान ने ढेर सारे प्रोग्राम भी रखे थे। बच्चों का, बच्चों के लिए और बच्चों के द्वारा, जैसे वाक्य का यहां इस्तेमाल किया जा सकता है।
हम बचपन में संकोची हुआ करते थे, कभी जब किसी के यहां जाना होता था तो खुद को एक्सप्रेस करने में या फिर खाने-पीन में भी संकोच किया करते थे लेकिन विगत दशकों में बच्चों में ढेर सारे परिवर्तन देखे जा रहे हैं। ये परिवर्तन व्यापक हैं। बच्चे खुलकर एक्सप्रेस कर रहे हैं। जन्मदिन पार्टी में जब कुछ बच्चे चुटकुले सुना रहे थे तो उनके आत्मविश्वास का मैं कायल हो गया। निजी तौर पर मैं बच्चों में सबसे अधिक आत्मविश्वास की खोज करता हूं। बच्चों में ये बदलाव केवल शहरों में नहीं बल्कि गांव-कस्बों तक हुए हैं। मेरा मानना है कि इसके पीछे सबसे अधिक टेलीविजन का हाथ है। ( मैं इसे समाज विज्ञान के विभिन्न कोनों से समझने की कोशिश कर रहा हूं) जब बच्चे अपनी बात रख रहे थे तो ऐस लग रहा था मानो कोई वीडियो एड देख रहा हूं। मुझे तो लगता है देश के नामी-गिरामी एड-गुरु इन्हीं बच्चों को देखकर आत्मविश्वास से लबरेज एड बनाते होंगे। खैर, शाम से रात हुई। हमने दिनेश सर के यहां जमकर भोजन किया, केक खाया, लड्डू का मजा लिया और फिर अपने आशियाने की ओर विदा हुए। शांत-सौम्य मेजबान ने हमें अपने सेकेंड फ्लोर के आशियाने से ग्राउंड फ्लोर तक छोड़ा। ठंडी हवा चल रही थी, हम इसी आस के साथ दिनेश सर के घर से विदा हुए कि यह शहर हमें दिनेश श्रीनेत की तरह और भी कई शहरी से दोस्ती कराएगा।
दिनेश भाई तो हैं ही आत्मीय। यहां बंगलौर में थे तो ब्लाग पर मुझसे टकरा गए। पहले मेल किया कि मैं चकमक पढ़ता रहा हूं,और एकलव्य के बारे में भी जानता हूं। आप से मिलना चाहूंगा। मैंने कहा कि स्वागत है। एक दिन अपनी फटफटिया पर चले आए। इतना ही नहीं फिर एक दिन उसी पर बिठाकर अपने घर भी ले गए। शालिनी ने उतनी ही आत्मीयता से आलू-गोबी की सब्जी और पूरियां बनाकर खिलाईं। खाने बनाते हुए वे दोनों बेटों को जिस तरह से संभाल रही थीं,वह कम ही देखने में आता है। आपने जन्मदिन की बात कही है सो पक्के तौर पर दोनों बेटों में से किसी एक का जन्मदिन रहा होगा। बधाई आपके ही माध्यम से।
ReplyDeleteउनके घर पर मेहमान नवाजी की दास्तान मैंने भी अपने ब्लाग यायावरी पर लिखी थी,आप भी पढ़ सकते हैं-http://apnigullak.blogspot.com/2009/07/blog-post_19.html#more
जी राजेश जी, यायावरी पर आपके संस्मरण को पढ़ा। आपका मोबाइल नंबर नहीं मिल रहा है।
ReplyDeleteDinesh sir is realy a nice person. Baat jahan tak bachchon ki hai, to aaj kal ke bachche wakai aatmvishwas se bhare hain.
ReplyDeleteDinesh sir is realy a nice person. Baat jahan tak bachchon ki hai, to aaj kal ke bachche wakai aatmvishwas se bhare hain.
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