आदमी बदल जाता है पर नहीं बदलता उसका रंग-रूप
आदमी के भीतर हजारों आदमी में से एक
जब बदलता है तो बदल जाती है उसकी तस्वीर।
कई दिनों से इसी उधेड़बुन में कि
कब मेरे अंदर का अन्य पुरुष बदल गया।
मैं अचंभित था खुद में छुपे चोर को देखकर
सच्चाई से डरने वाला मेरे अंदर का दूसरा आदमी
अचानक सामने आता है।
वह चोर है, झूठ बोलता है....
उसमें केवल आगे बढ़ने की भूख-प्यास है,
इसके लिए वह कुछ भी कर सकता है॥।
खुद के इस आदमी से पहली मुलाकात में
घृणा हो गई, एक आदमखोर की गंध से
अपना मन का कमरा भर गया॥।
इसके बाद ही पता चला कि
आदमी बदल जाता है पर नहीं बदलता उसका रंग-रूप
मेरे चोर और झूठे आदमी का भी रूप मेरे जैसा ही है
पर आसानी से वह पकड़ में आ जाता है
अंदर छुपे हजारों आदमियों में
अपने अंदर का कुदरूप आदमी..।
वाद-विवाद प्रतियोगिता में अक्सर ये लाइन दुहराता आया हूं- झड़ गए रोम,रोमत झड़े,पशुता का झड़ना बाकी है...
ReplyDeleteKHUBSOORAT RACHANA.......BADHAYI
ReplyDeleteअपनी आत्मा से साक्षात्कार करती एक सच्ची कविता ..शुभकामनायें ..!!
ReplyDeletewah! bahut khub...behad khoobsorat rachna hai.
ReplyDeleteहिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ। कविता बहुत सुन्दर है।
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