मैं,
कहना बहुत कुछ चाहता हूं,
घरवालों और दोस्तों से ।
पर कह नहीं पाता,
बात पेट में और फिर
ऑफिस में ही ठहर जाती है।
हर सुबह
ऑफिस निकलने से पहले
सोचता हूं
आज
दीदी के घर जाउंगा॥
ढेर बातें करूंगा, मन की भड़ांस निकालूंगा॥
लेकिन हर शाम
मैं बदल जाता हूं।
ऑफिस का टेम्परेचर
हावी रहता है दिमाग में...
डीएनडी पार करने के बाद
याद आता है॥
ओह.!
आज फिर मैंने भूल की
दीदी के यहां जाना था॥
बात करनी थी......
भाई, हम एक साथ कई मोरचे पर तैनात सिपाही हैं । हमारे समय की विडंबना यह है कि जो जिंदगी हम जी रहे हैं वह हमारी जिंदगी है ही नहीं । आपकी कविता में वो जिंदगी बोल रही है, जो हमारी अपनी है। खैर, एक शेर अर्ज कर रहा हूं।
ReplyDeleteकोशिश के बावजूद इल्जाम रह गया
हर काम में जैसे कोई रह गया
बकौल फिराक
जिंदगी में एक कमी सी है
कि जरा-सी कमी बहुत-सी है
कोशिश के बावजूद इल्जाम रह गया
ReplyDeleteहर काम में जैसे कोई काम रह गया
शुक्रिया रंजीत भाई। फिराक साब ने ठीक ही कहा है कि जिंदगी में एक कमी सी है...
ReplyDeleteशायद इस वजह से मुझे जरा सी कमी भी बहुत बड़ी कमी महसूस होती है। (कभी-कभार)
इ रवीश सरजी एक-एक करके सारे ब्लॉगरों को कविताई की लत लगा देंगे क्या। उधर ऑफिस-घर के बीच के झोकम-झोकी में भेलेनटाइन दिन में लिखे कि बेजी को भी पुरानी कविता याद आ गयी, औऱ इधर गिरि को। तब गद्य में जीवन के यथार्थ कोन लिखेगा भाई।
ReplyDeleteये बताओ दोस्त , इतनी व्यस्तताओं के बीच कविता और गांव की रिपोर्ट आखिर कैसे पस्ट करते हो। मीडिया में अभी तो लोगों पर कॉस्ट कटिग और न जान कौन-कौन कटिंग के नाम पर काम का बोझ अतिरिक्त कहें तो बोनस डाला जा रहा है तो भी इतान लिख रहे हो..
ReplyDeleteकमाल की बात है।
कहूं तो लिखाड़ हो चले हो।
लिखते रहो और हम तक बात पहुंचाते रहो।
वैसे मार्मिक कविता है। दिल करीब। शुक्रया।
राकेश रमण
न्यूजर्सी