मानसरोवर में रहा करते थे सदन झा। मेरा उनसे मन से रिश्ता रहा है। ठीक वैसे ही जैसे अविनाश से मेरा है। दोनों को देखकर मन जैसे कह उठता है- सत-सत गुरु कहां थे आप...। सदन की पढ़ने और उसे गढ़ने की कला पर मैं जान उस समय भी लूटाता था और आज भी लूटाता हूं।
सदन ही शख्स हैं, जिनकी वजह से दिल्ली की एक अलग नब्ज को थामने की कला मैं सीख पाया। कई लोगों से मिलने और फिर उनसे जुड़ना भी उन्होंने ही सीखाया।
हंस से अपनापा भी सदन की ही देन है। एक बार कॉलेज की लाइब्रेरी में पत्रिकाओं को पलट रहा था तो हंस भी पलटा। साल 2003 होंगे, पूरी तरह याद नहीं है। डॉट कॉम की दुनिया में हिंदी को लेकर उनका लेख पढ़ा। लिटरेट वर्ल्ड डॉट कॉम को लेकर उन्होंने लिखा था। बस उसी के बाद हिंदी को डॉट कॉम.....में देखने और इस दुनिया में खुद को आजमाने की आदत बनती चली गई।
कई यादें हैं मानसरोवर से। यहीं से आगे बढ़ते हम दोस्तों के संग मिरांडा हाउस की तरफ लपकते-झटकते भागते थे। सभी दोस्त ऐसे ही लपकते-कूदते-झटकते आज कहीं से कहीं चले गए हैं। दिल्ली और अन्य जगहों में सभी धमाल मचा रहे हैं।
पटेल चेस्ट चौक पर गरमागरम जलेबी खाने की ललक मानसरोवर से निकलकर ही हुआ। जीने के तौर-तरीके सीखता यह शहर दिल्ली और सामने बैठा कोई अपना भी यहीं कभी-कभार कह उठता था- फासले ऐसे भी होंगे , ये कभी सोचा भी नहीं था।
जारी है।
5 comments:
अच्छा है, बहुत ख़ूब, सुन्दर प्रस्तुति
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गुलाबी कोंपलें | चाँद, बादल और शाम
आप तो यादों में डूबाने का काम कर रहे हैं. हाँ हम भी मिरांडा हाउस से आगे दौलतराम जाया करते थे.
पटेल चेस्ट पर जिलेबी के संग समोसे का भी लुत्फ़ उठाया है और आज भी जब डेल्ही आता हूँ तो वहां जाता हूँ.
अभिषेक
आजकल रोज आना होता है अनुभव पर. खासकर जबसे आपने संस्मरण को यहाँ पोस्ट करे की शुरुआत की है.
मैं सहमत हूँ की गावं से निकलकर जब हम शहरों में आते हैं तो कही चीजे हमसे जुड़ती भी है,
वैसे आपकी आंचलिक रिपोर्टों का हमे सबसे अधिक इंतजार रहता है. खासकर रेनू अब मेरी भी पसंद हो गये हैं .
मुझे लिक्खाड़ बनाने में इन दोनों की जबरदस्त भूमिका रही है, मानसरोवर के लोगों के साथ खूब धरने पर बैठा हूं
अपना चक्कर तो आजकल भी लग जाता है गिरीन्द्र भाई ...
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