कभी पहाड़ों में रहने वाले मोहन राणा की कविता संग्रह 'धूप के अंधेरे में' दिल के करीब कई कविताएं हैं। कवि का जन्म वैसे दिल्ली में हुआ है लेकिन कविताओं से लगता है कि उन्हें पहाड़ों से खास लगाव है। मोहन राणा इन दिनों ब्रिटेन के बाथ शहर में आशियाना बनाए हुए हैं और अपनी कविताओं के जरिए वहां हिन्दी भाषियों को नई कविता से रूबरू करा रहे हैं। 'धूप के अंधेरे' में कुल 83 कविताएं हैं, हर एक कविता पाठक को सच, अस्मिता और य़थार्थ के प्रश्नों की ओर बार-बार लौटाने का काम करती है।
'धूप के अंधेरे में' में कवि की पहली कविता 'चींटी' है। 'चींटी' को लेकर राणा पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करते है और बरबरस मन कह उठता है-
मुझे नहीं मालूम नहीं मालूम कि तुम जानना क्या चाहते हो, .......'
कई कविता तो बस दो-चार पंक्तियों में है। 'बारिश को देख'- एक ऐसी ही कविता है। यहां राणा ने लिखा है-
'जब मैं देखूंगी बारिश को, फिर से अपने देश में,
कैसी लगेगी वह.. मुझे इतना गुस्सा आता है यहां,
बारिश को देख।'
इन कविताओं में पाठक इसलिए खुद को खोया पाता है, क्योंकि यहां उसकी अस्मिता को लेकर बातचीत होती है। संग्रह में एक कविता है- 'टेलिफोन'। मेरी प्रिय कविताओं में एक है। कविता यहां से प्रारंभ होती है-
'कई दिन कि याद नहीं कितने बीते यही सोचते बीते कई दिन तुम्हें याद करते ...'
और यह कविता कुछ यूं खत्म होती है-
'क्या तुम सड़क के उस पार हो, हैलो तुम्हारी आवाज सुनाई नहीं देती...क्या तुम मुझे सुन सकती हो....'
टेलिफोन को लेकर ऐसी बातें कविता के अंदाज में कहना सचमुच कठिन काम है, लेकिन राणा यहीं अपनी भावनाओं के जरिए कविता को नई ऊंचाई दी है और यहां वे सफल भी रहे हैं।
कविता संग्रह में कहीं-कहीं राणा टूटते भी नजर आए हैं। दरअसल, कई कविताओं में बैचेनी का जबरदस्त आभाश होता है, जहां पाठक खुद को दूर पाता है। इस श्रेणी में मैं 'रंग हरा..' कविता को शामिल करता हूं। कविता की पंक्तियां है-
'कोई और नहीं, बस हरा,
हरापन की ध्यान नहीं आता कोई और रंग..।'
यह कविता यहीं खत्म हो जाती है और पाठक के सामने ढेर सारे सवाल छोड़ देती है। मसलन यह कैसा हरापन, क्या प्रकृति की बात हो रही है या फिर मन की। ऐसी ही एक अन्य विचारोत्तोजक कविता 'दो खिड़कियों के बीच है' यहां कवि पूछता है-
'धूप के अंधेरे में' में कवि की पहली कविता 'चींटी' है। 'चींटी' को लेकर राणा पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करते है और बरबरस मन कह उठता है-
मुझे नहीं मालूम नहीं मालूम कि तुम जानना क्या चाहते हो, .......'
कई कविता तो बस दो-चार पंक्तियों में है। 'बारिश को देख'- एक ऐसी ही कविता है। यहां राणा ने लिखा है-
'जब मैं देखूंगी बारिश को, फिर से अपने देश में,
कैसी लगेगी वह.. मुझे इतना गुस्सा आता है यहां,
बारिश को देख।'
इन कविताओं में पाठक इसलिए खुद को खोया पाता है, क्योंकि यहां उसकी अस्मिता को लेकर बातचीत होती है। संग्रह में एक कविता है- 'टेलिफोन'। मेरी प्रिय कविताओं में एक है। कविता यहां से प्रारंभ होती है-
'कई दिन कि याद नहीं कितने बीते यही सोचते बीते कई दिन तुम्हें याद करते ...'
और यह कविता कुछ यूं खत्म होती है-
'क्या तुम सड़क के उस पार हो, हैलो तुम्हारी आवाज सुनाई नहीं देती...क्या तुम मुझे सुन सकती हो....'
टेलिफोन को लेकर ऐसी बातें कविता के अंदाज में कहना सचमुच कठिन काम है, लेकिन राणा यहीं अपनी भावनाओं के जरिए कविता को नई ऊंचाई दी है और यहां वे सफल भी रहे हैं।
कविता संग्रह में कहीं-कहीं राणा टूटते भी नजर आए हैं। दरअसल, कई कविताओं में बैचेनी का जबरदस्त आभाश होता है, जहां पाठक खुद को दूर पाता है। इस श्रेणी में मैं 'रंग हरा..' कविता को शामिल करता हूं। कविता की पंक्तियां है-
'कोई और नहीं, बस हरा,
हरापन की ध्यान नहीं आता कोई और रंग..।'
यह कविता यहीं खत्म हो जाती है और पाठक के सामने ढेर सारे सवाल छोड़ देती है। मसलन यह कैसा हरापन, क्या प्रकृति की बात हो रही है या फिर मन की। ऐसी ही एक अन्य विचारोत्तोजक कविता 'दो खिड़कियों के बीच है' यहां कवि पूछता है-
'अगर तुम कभी झांको,
उस जगह से स्वयं को
दो खिड़कियों के बीच पाओगे।'
राणा इन कविताओं में जीवन की पड़ताल करते नजर आते हैं। सभी 83 कविताओं में कवि के अनुभव और जिंदगी को देखने के नजरिए से कोई भी परिचित हो सकता है।
bhai kuChh poori kavita bhI paDhhvaa deM to kripaa hogi smeekshaa achhi lagi
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