Thursday, January 15, 2009

मैं असभ्य हूं .....................

आज भवानीप्रसाद मिश्र की एक कविता याद आ रही, साझा करना चाहता हूँ। आप भी पढ़ें
मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि चीर कर धरती धान उगाता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूं
आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं
आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूं याने!

4 comments:

  1. मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
    धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूं याने!
    bahut sahi

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  2. बहुत सुन्दर !
    घुघूती बासूती

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  3. मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ।

    पर सभी बेहतर की तरफ
    क्‍यों भाग रहे हैं
    होकर तरबतर
    क्‍यों नहीं करते
    उस पार के दुख को
    तितर बितर।

    या बेहतर छोड़ जायें
    दूसरे (अपनों) के लिए
    उस तरफ को
    भी करें बेहतर
    चाहे हो आसमां की ओर
    या तलाश पायें हम
    दिलों के छोर
    खुशी भर दें
    हर उस ओर।

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