मुंशी जी आप विधाता तो न थे, लेखक थे अपने किरदारों की क़िस्मत तो लिख सकते थे?'
'प्रेमचंद की सोहबत तो अच्छी लगती है
लेकिन उनकी सोहबत में तकलीफ़ बहुत है...
मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए हैं
हम को भी और जिनको आप ने पीस पीस के मारा है
कितने दर्द दिए हैं आप ने हम को मुंशी जी
‘होरी’ को पिसते रहना और एक सदी तक
पोर पोर दिखलाते रहे हो
किस गाय की पूंछ पकड़ के बैकुंठ पार कराना था
सड़क किनारे पत्थर कूटते जान गंवा दी
और सड़क न पार हुई, या तुम ने करवाई नही
‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और
‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और
पराए भी ख़ाली गोद रही
आख़िरकहती रही डूबना ही क़िस्मत में है तो
गढ़ी क्या और गंगा क्या
‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रही
‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रही
कितनी देर लगाई तुमने एक चिमटा पकड़ाने में
‘घीसू’ ने भी कूज़ा कूज़ा उम्र की सारी बोतल पी ली
तलछट चाट के अख़िर उसकी बुद्धि फूटी
नंगे जी सकते हैं तो फिर बिना कफ़न जलने में क्या है
‘एक सेर इक पाव गंदुम’, दाना दाना सूद चुकाते
साँस की गिनती छूट गई है
तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मज़दूरी में
तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मज़दूरी में
बांध के तुमने क़लम उठा ली
‘शंकर महतो’ की नस्लें अब तक वो सूद चुकाती हैं।
‘ठाकुर का कुआँ’, और ठाकुर के कुएँ से एक लोटा पानी
एक लोटे पानी के लिए दिल के सोते सूख गए
‘झोंकू’ के जिस्म में एक बार फिर ‘रायदास’ को मारा तुम ने
मुंशी जी आप विधाता तो न थे, लेखक थे
अपने किरदारों की क़िस्मत तो लिख सकते थे?'
10 comments:
बहुत बढिया बहुत मार्मिक...
कभी हमारे अड्डे पर भी आयें... :-)
बहुत उम्दा प्रस्तुति. दिल को छू गई. आभार.
प्रेमचंद के करीब-करीब सभी पात्रों को शामिल कर लिया।
अच्छी प्रस्तुति।
सिर्फ लेखक के द्वारा किरदारों की किस्मत लिख देने से अगर उनकी किस्मत हकीकत में बदल जाती, तो शायद गुलजार साहब को यह कहने की जरूररत ही न पडती।
इस रोचक जानकारी के लिए साधुवाद।
गुलज़ार अच्छे निर्देशक और गीतकार हैं पर प्रेमचंद पर उनकी यह कविताई समीक्षा बेहद साधारण है .
इसलिए औसत फ़िल्मी रूमान से भरी इस साधारण कविता की अंतिम पंक्तियों के लिजलिजे रूमान से प्रेमचंद का यथार्थवादी चित्रण ज्यादा प्रेरक-कारगर है .
महामंत्री (तस्लीम) जी की बात गौर करने योग्य है .
बहुत अनोखी प्रस्तुति।बहुत खूब!
वास्तविक मानव जीवन की किस्मत बिल्कुल अनजाना होता है, उसे कहानी के पात्र की तरह दिशा नहीं दिया जाता। प्रेमचन्द ने अपने अनूठे साहित्यिक जीवन में कथाओं के जरिए अनगिनत प्रश्न छोड़े जो मानव जीवन की वास्तविकता से जुड़ता था जिसका भाग्य कोई नहीं जानता। गुलजार साहब की यह कविता प्रेमचन्द के उन अनगिनत संभाव्य जीवन-गाथाओं को एक साथ सन्निहित करता है...याद आता है जयशंकर प्रसाद का ‘विराम चिह्न’ जो कहानी के अंत क्षणों में पाठकों (समाज) के लिए परिणाम सहित कई अकथ्य प्रश्न छोड़ जाता है...
मुंशी जी ने जो देखा, अनुभव किया वह लिखा। गुलजार ने मुंशी को पढ़ा और वही देश में देखा। किस्मत तो जिस दिन लिखेगा अपनी खुद ही लिखेगा हिन्दुस्तान। दूसरे तो आप की किस्मत ऐसी ही लिखेंगे।
आज जरुरत हे हमे ओर हमारे बच्चो को मुंशी जी की, आप ने बहुत खुब लिखा, धन्यवाद
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