आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख
पर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।
अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।
ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।
राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।
बड़े दिन बाद लौटे हैं आप गिरीन्द्र बाबू.
ReplyDeleteसमाचारों की दुनिया में रहते हो और ब्लागिंग के प्रति ऐसी उदासी?
मेरे नये पते पर स्वागत है.
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गिरिन्द्र कैसे हो बंधु. बहुत दिनों बाद आना हुआ अनुभव पर. दुश्यत को पढकर अच्छा लगा.
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