मैंने रामसेतु मामले को लेकर एक अनुभव अपने ब्लाग पे लगाया, दरअसल लगाते वक्त मैंने बुधवार के बंद के दौरान लोगों की समस्याओं को अपने जेहन में रखा था। साथ हीं बीबीसी के आलेख को भी लगाया.......कुछ लोगों को यह अच्छा न लगा.....
आज सराय-सीएडीएस के राकेश कुमार सिंह ने इससे जुड़ी तमाम बातों पर खुलकर अपनी बात कही है। शायद यह उन सवालों का जबाब भी है....जो मुझसे पूछा गया था।
तो आप भी पढ़े....
गिरीन्द्र, चलिए आपने बीबीसी से साभार एक ऐसा टुकड़ा अपने ब्लॉग पर लगा दिया कि हमारे रामभक्तों को लगने लगा कि उनके राम की छुट्टी की जा रही है। संजीवजी या हमारे ऐसे जितने मित्र हैं उनसे अनुरोध है कि इतने सशंकित न हों. राम को अपनी हिफ़ाजत के लिए कम से कम आप या भाई तोगडिया या उन जैसे लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आपकी
ही सहुलियत के लिए बता दूं कि जब हम अभिवादन में राम-राम करते हैं तो उसका मतलब ये नहीं होता है कि हम आपके एजेंडे में शरीक हो रहे हैं, उसके वाहक हो रहे हैं. भाई राम हमारा राम जो है, बड़ा भला इंसान है. वो यहां के हज़ारों-लाखों के दिलों में है. वो लड़ाकू तो बिल्कुल ही नहीं है. RSS Pt. Ltd. ने तो उसको गुंडा-मवाली टाइप बना दिया है. उससे ज़मीन क़ब्ज़ा करवाते हैं. जहां-तहां हुड़दंग करवाते हैं.हमारा राम सीधा-साधा संत था. पता नहीं किस चक्कर में पड़ के समाज-विरोधी गतिविधियों में शामिल हो गया. मुझे लगता है वो ख़ुद ऐसी हरकत करता नहीं होगा, उसे ज़रूर कुछ गुण्डे उठा ले गए होंगे, या डरा-धमका दिया होगा. वैसे भी हमारे समाज में अपने दम पर जीने वाले लोगों की भारी कमी है. अपनी काया और अपने मेहनत पर भरोसा करने वाले बहुत कम हैं. अच्छा, एक बात और है - ऐसे ही लोग ब्राह्मण, देवी-देवता, ओझा-भगत, डाइन-जोगिन, भूत-पिशात, छूत-अछूत में भारी यक़ीन करते हैं. इतना ही नहीं, जब कभी कोई इनका भेद खोलने की कोशिश करता है तो उसके पीछे ये हाथ धो कर पड़ जाते हैं. असल में राम वैसे तो था बड़ा सीधा-साधा लेकिन राजगद्दी के चक्कर में उसने भी कम दाव-पेंच नहीं खेला. लेकिन क्या है कि राजनीति में तो ये सब करना पड़ता है. गद्दी सामने देखकर लोग राजधर्म के नाम पर कभी-कभी ग़लती भी कर जाते हैं.तो अपना राम भी एक बार बताया कि भइया हमारे बारे में ग्रंथ वग़ैरह में काफ़ी कुछ फिक्शन भी लिखा है. इतना बड़ा मैं था नहीं लेकिन कुछ लोग तब भी मेरे नाम पर रोटी सेंकने की फिराक में था. मुझे पुरुषोत्तम बना दिया. भइया, मैंने स्त्री विरोध का काम भी ख़ूब किया, जब तक चाहा भाइयों को भी नचाया. ज्यादा से ज्यादा सेनापति वगैरह की जिम्मेदारी दी उन्हें, और शंबूक वाला प्रकरण तो तुम जानते ही हो, करना पड़ा. तो संजीव भाई, क्या है कि आज भी रातोंरात रातोंरात अमीर, दबंग, प्रतिष्ठित, प्रभावशाली, वर्चस्वशाली बनने के लिए हमारे आस-पास के लोग कुछ भी छल-प्रपंच रच लेते हैं. आप ही बताइए जिसको कुछ लोग राम सेतू कह रहे हैं, अगर अपने रामजी ही बनवाए थे वानरों के लंका प्रवेश के लिए तो ठीक ही किया होगा. लेकिन देखिए, राम कितने कमज़ोर विवेक वाले राजा थे, काम हो गया, सीताजी को ले आए, साथ में रावणजी का घर भी तोड़ दिया, उनके भाई को अपने में मिला लिया - उसके बाद तो उस ब्रिज को तो तोड़ देना चाहिए था न। नहीं किए, क्यों? सोचा होगा बाद में फिर कोई लफ़डा होगा? असल में उस समय का प्रोपर्टी डीलर, ठेकेदार वगैरह भारी पड़ गया होगा. मुझे तो ऐसा ही लगता है. देखिए न, आज भी यही हो रहा है न. अब उस दिन जो रामसेतू के नाम पर उधम-कूद मची दिल्ली में, क्या लगता है आपको सब जायज था?इतने सारे पुल टूट रहे हैं या तोड़े जा रहे हैं - उसके खिलाफ़ आप कभी नहीं बोलते हैं. और तो और मंदिरों को बांध-वांध के चक्कर में डूबोया जा रहा है. गुजरात में ही ऐसा हुआ है. सरेआम मंदिरों और मंजारों को ध्वस्त किया गया. आप जैसे किसी मित्र ने कभी इसके खिलाफ नहीं बोला. जिस मेट्रो का जिक्र किया आपने - उसकी चपेट में कितने घर, कितने परिवार, कितने लोग आए - आपने सोचा नहीं होगा. सोचा भी होगा तो उस पर कभी बोलने की नहीं सोची होगी आपने.जहां तक कुतुबर मीनार के कारण मेट्रो का रास्ता मोड़ने की बात है, तो मेरा कोई ख़ास आग्रह नहीं है रास्ता आपके सुझाए रखने के खिलाफ या जो हो रहा है उसके खिलाफ. भई, मुझे तो यही लग रहा है कि देसी-विदेशी लोग आते हैं - सरकारी कोष में कुछ पैसा चढ़ा जाते हैं. कुल मिला कर कुछ फायदा, अगर आप ख़ुद को भी देश का हिस्सा मानते हैं तो, हमारे नाम भी आ जाता है. ये अलग बात है कि जिस तरह उसे ख़र्च होना चाहिए था - वो नहीं हो पा रहा है. रही ताजमहल वाली बात, तो भइया, वहां भी यही बात लागू होती है. लेकिन वहां ताजमहल के गंदा होने के नाम पर कल-कारखाने हटाए जाते हैं या लोगों को परेशान किया जाता है, तो तकलीफ वाली बात तो है ही. पर इससे भी दुख की बात ये है कि RSS & Party को कभी इस बात से ऐतराज हुई हो और उसने कभी अपने सांसदो, विधायकों, या सभासदों को इस्तीफ़ा देने के लिए एक बार भी कहा हो - कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिला.तो संजीवजी, मैं एक परिचित, मित्र, और कार्यकर्ता के तौर पर आपकी बहुत इज्जत करता हूं, पर आप और आप जैसे मुट्ठी भर बंधुओं (क्योंकि ज्यादातर को तो इन फूसफास में यकीन ही नहीं है) की भावनाओं का कद्र कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता हूं क्योंकि आपकी भावनाएं बेहद कमज़ोर हैं. बात-बात में आहत हो जाती हैं. कभी पुल से, कभी पेंटिंग से, कभी भोजन से, कभी ड्रेस से, कभी किताब से तो कभी वेलेंटाइन से. फिल्म और संगीत से तो अकसर आप जैसे मित्रों की भावनाएं ठेस खा जाती हैं. हर ठेस के बाद ऐसे ही कभी आप जैसे लोग जाम करते हैं, कभी पुतला फूंकते हैं (चाहते तो हैं वैसे आप पुतले के असली रूप को ही फूंकना), कभी लाठी चला देते हैं, कभी गोली चला देते हैं, कभी आग लगा देते हैं, कभी दंगा भड़का देते हैं. कभी-कभी तो आप जैसे कुछ मित्र सामूहिक बलात्कार भी कर लेते हैं महिलाओं के साथ. गिरिन्द्र भाई आपके माध्यम से मैं भाई संजीव और उन जैसे और भाइयों को यह सलाह देना चाहता हूं कि कृपया किसी अच्छे अस्पताल के अच्छे डॉक्टर से वे अपनी भावनाओं का इलाज कराएं. क्योंकि देखने में आया कि है कि पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में और ख़ासकर के हिन्दुस्तान में कुछ ख़ास तरह के लोगों में यह रोग तेज़ी से फैलाई जा रही है. ख़बर ये भी है कि इस रोग को फैलाने में गुजरात प्रांत में एक अंग्रेजी पद्ध्ति से इलाज करने वाले एक डॉक्टर की बड़ी भूमिका है. बिना टैबलेट और इंजेक्शन के डॉक्टर साहब इस रोग का किटाणु दुनिया भर में फैला रहे हैं. सुना है कि उनकी वाणि विषैली है और यह अदृश्य किटाणु उनकी जिह्वा पर निवास करता है।
सप्रेम
नमस्कार
राकेश
5 comments:
विनय न मानत जलधि जड़,
गए तीन दिन बीति.
बोले राम सकोप तब,
भय बिनु होत न प्रीति.
सही व्याख्या की… सुंदर!!
गिरीन्द्रजी, राकेशजी की बात का मैं समर्थक हूं कि राम को अपनी हिफाजत करनी आती है...उनका व्यंग्यात्मक वाक्य भी कई जगह अच्छा दिखा जिसमें राम को उन्होंने बुरा-भला कहा है (मतलब लोगों ने राम को ऐसा बना दिया है)...हमने ही राम को कमजोर बना दिया, जिन्हें हम जगत् के नियंता मानते हैं, संसार के सृजनकर्त्ता व पालनकर्त्ता/रक्षक मानते हैं, उनकी रक्षा के लिए बार-बार हमें डंडा उठाना पड़ता है, मतलब कि उनकी शक्ति में हमें यकीन भी नहीं है, फिर उन्हें सर्वशक्तिमान कहना ही बेकार है...सबकुछ हम खुद कर देते हैं, कह देते हैं।
जहां तक पुरातत्त्वविद् या वैज्ञानिकों की बात है तो वह न राम को प्रमाणित कर सकते हैं, न अल्लाह को..यह भावनात्मक जुड़ाव है साथ ही कुछ पौराणिक ग्रंथों में निहित व्याख्या..। राकेश जी द्वारा राम के नाम पर रोटी सेंकने वालों पर किए गए वाक्-प्रहार में राम को प्रपंची कहा गया है...क्या करे बेचारा राम सुनना पड़ता है उसे भी...अपने कहलाने वाले लोगों ने ही उन्हें ऐसा बना डाला है। राम तो संसार मात्र के कल्याण के लिए हर कुछ करते थे फिर अपने द्वारा बनाए गए सेतु के हटने से लोक कल्याण होता देख वो क्यों नहीं ऐसा होने देंगे.....राम का अलख लगाने वाले उनके एक भक्त ऋषि दधीचि ने तो लोककल्याण के लिए खुद को विलीन कर दिया था...फिर स्वयं राम के क्या कहने...
झा जी;
यह टिपण्णी मेरे ब्लोग पर दिए गए आपके टिप्पणी के जवाब मे लिखा गया है. . . व्यस्तता कारण जवाब समय से नही दिया, उसके लिए मुझे खेद है.
जी मै ज्योतिष को खराब नही मानता हूँ, बल्कि मुझे ज्योतिष मे पूर्ण आस्था है. लेकिन इसका कतई मतलब नही है कि मै सारे ज्योतिषी को भी मानने लगूँ.
मै अपने इसी प्रमेय को आगे बढाते हुए बताना चाहता हूँ कि प्रोबलेम पत्रकारिता मे नही है, प्रोब्लेम पत्रकार विशेष मे है. इसका मतलब कतई नही है कि सारे पत्रकार एक जैसे है. दुनिया मे बहुत अच्छे लोग (पत्रकार पढिए) हैँ, जिनकी वजह से दुनिया चलती है. . . आपने मे मेरे अन्दर पत्रकारोँ जैसा गुण पाया . . . इसके लिए धन्यवाद. . . लेकिन मै आपको बता दूँ कि मै भी ऐसा ही करना चाहता था लेकिन पिताजी कि इच्छा ने मुझे इन्जीनियर बना दिया... आखिरकार हमलोग भारतवर्ष मे रहते हैँ . . .
अभी अभी मैने अपने . ब्लोग पर एक चिट्ठा और डाला है... समय मिलने पर पढे और प्रोत्साहित करेँ. पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करेँ
आरकूट के जरिए कभी कभी कुछ मजेदार चीज हाथ आ जाती है, यह गीत उसी का नतीजा है.
स्क्रेप बुक में आया तो सोचा क्यो न यहां लगाया जाए ........तो पेश है-
चारो ओर देख
अंगरेजी का गीटिर-पिटिर
सोचला मनवा
का इ देश बा अपना,
कब मिली भोजपुरी
के कद अपना,
खुली आखँन से
देखी ला इ सपना |
पहिन के सूट-बूट
बोलेमें आपन भाषा,
जब केहु के
शरम न आई,
खुली आखँन से
देखी ला इ सपना |
जइसे बोल के अंगरेजी
फूलला आपन सीना,
वइसन कब लोग
सिखियन अपने भाषा
के संग जीना,
खुली आखँन से
देखी ला इ सपना |
देखत- देखत सपना
आ गइल निंदिया,
जागा तो पाया
हाथ में रहल हमरे
अंगरेजी का दुनिया ,
तब समझ इ आयल भवा,
पहिले बदला अपने के
तब चला बदले दुनिया,
नाहिं त खुली आखँन से
देखत-देखत रह जाई
इ बस एक सपना
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