मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Friday, September 14, 2007
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
१९५४ मे मिर्ज़ा ग़ालिब फिल्म आयी , उसी का यह गीत है। गुलाम मोहम्मद ने संगीत दिया था। यह ग़ालिब की ही रचना है.......... आनंद उठायें ॥
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ़ के सर होने तक
आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रँग करूँ खून-ए-जिगर होने तक
हम ने माना के तग़कुल न करोगे लेकिन
खाक हो जाएंगे हम तुम को खबर होने तक
ग़म-ए-हस्ती का ''''''''असद'''''''' किससे हो कुज़-मर्ग-ए-इलाज
शमा हर रँग में जलती है सहर होने तक
हमने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक़ हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक
ख़ाक़ हो जायेंगे हम
हुस्न-ए-ग़म है के सज़ा सज़ से छुटा मेरे बाद
बाकी आराम से हैं अहल-ए-जफ़ा मेरे बाद
शमा बुझती है उसमें से धुआँ उठता है
शोला-ए-इश्क़ सिया-पोश हुआ मेरे बाद
ग़म से मरता हो के इतना नहीं दुनिया में कोई
क्यूँ करें ताजियत-मेहर-ओ-वफ़ा मेरे बाद
आये है दिलक़शी-ए-इश्क़ पे रोना ग़ालिब
इश्क़ घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद
श : चली पी के नगर
अब काहे का डर
मोरे बाँके
हो मोरे बाँके बलम कोतवाल -२
को : चली पी के नगर अब काहे का डर
मोरे बाँके
हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
श : हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
श : अपने पिया की
को : अपने पिया की
श : मैं पटरानी
मारूँ नजरिया दिल होवे छलनी
को : मारूँ नजरिया दिल होवे छलनी
श : मेहंदी से हथेली है लाल
हो
को : मेहंदी से हथेली है लाल
मोरे
हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
श : हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
श : बन के दुल्हनिया मैं इतराऊँ
को : बन के दुल्हनिया मैं इतराऊँ
श : अब न किसी से आँख मिलाऊँ
को : अब न किसी से आँख मिलाऊँ
श : मोहे देखे ये किसकी मजाल
हो
को : मोहे देखे ये किसकी मजाल
मोरे
हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
श : हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
श : घर में बलम के
को : घर में बलम के
श : राज करूँगी
सास-ननद से मैं ना डरूँगी
को : सास-ननद से मैं ना डरूँगी
श : देवरा को में दूँदी निकाल
हो
को : देवरा को में दूँदी निकाल
मोरे
हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
श : हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
को : चली पी के नगर अब काहे का डर
मोरे बाँके
हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
श : हो मोरे बाँके बलम कोतवाल
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही, ये माजरा क्या है
मैं भी मुह में ज़ुबान रखता हूँ
काश पूछो की मुद्द क्या है
जबकि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़मज़ा-ओ-उश{}वा-ओ-अदा क्या है
शिकने-ज़ुलफ़े-अमबरी क्या है
निगाहे-चश्मे-सुरम सा क्या है
सब्ज़-ओ-गुल कहाँ से आये हैं
अब्र क्या चीज़ है, हवा क्या है
हमको उनसे वफ़ा कि है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हाँ भला कर, तेरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मैने माना कि कुछ नहीं ``ग़ालिब''
मुफ़्त हाथ आये, तो बुरा क्या है
क्या बात है।
ReplyDeleteभेजा मैंने नाम चलते चलते आ गया . खैर,
ReplyDeleteअच्छा लगा
भेजा मैंने नाम चलते चलते आ गया . खैर,
ReplyDeleteअच्छा लगा
सुंदर ग़ज़ल प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteएक गुजारिश है अगर ग़ालिब की एक ब्लॉग बन जाए टू पड़ने वालों की राह रौशन हो सकती है.
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है.
अब दुआओं के दर से लौटे हैं
बेअसर है दुआ, हुआ क्या है.
देवी नागरानी