मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Saturday, September 08, 2007
ब्लूलाइन बसों की दुनिया
ब्लूलाइन बसों की दुनिया को लेकर पहली बार हाजिर हैं हिमांशु शेखर। जनाब दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के छात्र हैं और लगातार जनसत्ता और अन्य अखबारों और पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं। हिमांशु की खासियत यह है कि ये बेबाकी से सारी बात कह डालते हैं...
तो आप भी देखें-ब्लूलाइन बसों की दुनिया.......
दिल्ली में चलने वाली ब्लूलाइन बसों के अंदर की दुनिया अपने-आप में खास है। देश की राजधानी में चलने का गुरूर सवारी और सवार दोनों में नजर आता है। बाकी, वंफडेक्टर-ड्राइवर के क्या कहने हैं! लोगों ने इसे दूसरा नाम दिया है वह है किलर बस आपको थोड़ा ताज्जुब हुआ होगा। किन्तु, मेरा ख्याल है कि चार-पांच दफा जो कोई इससे सफर करेगा वह ब्लूलाइन को इसी नाम से जानेगा। खैर! आए दिन बसों की चपेट में आकर लोग जान गंवाते रहते हैं। पर यह भी तय है कि इन बसों के बगैर दिल्लीवासियों का दिन भारी हो जाता है। हाल ही में जब कुछ दिन के लिए ब्लूलाइन बसें सड़क पर नहीं आईं तो डीटीसी की बसों में दिल्ली के कामकाजी लोग समा नहीं पाए। जेबकतरों के भी दम निकल गए। उस दरम्यान बसों की जानलेवा भीड़ ने किलर बसों की प्रासंगिकता को दर्शाया।
ब्लूलाइन बसों में सुबह और शाम के वक्त इतनी भीड़ होती है कि सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। फिर भी कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिनसे मन गुदगुदा जाता है। कईयों के तो गंभीर संकेत निकलकर सामने आते हैं। परिवहन व्यवस्था चरमराई नहीं कि बसें संसद की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं। फिर क्या है? व्यवस्था पर लंबी चौड़ी बहस शुरू हो जाती है। बस के अंदर बाहर का ताप एक साथ बढ़ने लगता है। कोई कहता है मेट्रो से समस्या का समाधान हो जाएगा। कोई यह मानता है कि दिल्ली की आबादी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि ससुरी मेट्रो का भी दिवाला निकल जाएगा। जितने लोग उतनी बातें। भाई, यह बहस का एक रूप है। सौहार्दपूर्ण बहस कब रौद्र रूप धारणा कर ले यह कहा नहीं जा सकता है। बैठने या खड़ा होने भर से झगड़ा शुरू हो जाता है। ठीक अपने संसद की तरह। कुछ हफ्तों पहले पहाड़गंज थाने से रूट संख्या-309 की सवारी कर रहा था। शाम का वक्त था और भीड़ की पूछिए मत! बस जैसे ही अजमेरी गेट से आगे बढ़ी नहीं कि दो लोगों में बहस शुरू हो गई। हाथापाई तक बात पहुंची हुई थी। कई नए विशेषणों (गाली) का इजाद हुआ। उसके बाद बीच-बचाव हुआ। सब कुछ खड़े-खड़े सम्पन्न हो गया। कुछ लोग दांत दिखला रहे थे जबकि महिलाएं परेशान थीं। यहां सीट पर बैठते वक्त कालेजिया युवक ने एक बुजुर्ग को थोड़ा सा खिसकने को कहा। वो उबल पड़े। झगड़े पर उतारू हो गए। सज्जन सा दिख रहा वह युवक बुजुर्ग के गुस्से का शिकार होते-होते बचा। इन नजारों को देखने के बाद प्रधानमंत्री की वह बात याद आती है, 'लोग सड़कों पर चलने के दौरान धैर्य बनाए रखें।' बसों पर भी यही बात लागू होती है। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री की सलाह को संसद से सड़क तक कम ही लोग गंभीरता से लेते हैं। दरअसल, कहीं का गुस्सा कहीं उतारने की बुरी प्रथा हमारे समाज में तेजी से बढ़ रही है। इस पर अंकुश लगाए बगैर सामाजिक सुरक्षा की बात करना सरासर बेईमानी है।
अंत में एक हल्का पर गंभीर प्रसंग रूट संख्या-355 के बस की। तपती दोपहरी में दो युवक सफर कर रहे थे। एक के हाथ में शीतल पेय का आधा लीटर वाला बोतल था। वह अपने साथी को बतला रहा था, 'ट्रेन से घर जाते वक्त जब उसे प्यास लगती है तो वह पानी की बोतल खरीदने के बजाए शीतल पेय का बोतल खरीदता है।' वजह बेहद रोचक है उसने कहा 'दोनों के दाम में आठ रूपए का फर्क है और रूतबे में आसमान-जमीन का।' यह कैसा दुर्भाग्य है कि लोगों को पेयजल नहीं मिल रहा है और वे कीटनाशकों से युक्त पेय को पीकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। यकीन मानिए राजधानी की ब्लूलाइन बसें चलती-फिरती सामाजिक पाठशाला से कम नहीं हैं।
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7 comments:
आप जो बातें कह रहे हैं वह तो किसी भी जन परिवहन प्रणाली में देखने को मिल जाता है. ब्लूलाईनवाले बेलगाम न होते तो इस प्रणाली में इतनी खोट भी नहीं थी कि आनन-फानन में सड़क से हटाना पड़ता. कभी-कभी देखता हूं गरीब और जरूरतमंद भी अपने गंतव्य तक का सफर कर लेते हैं. मैकेनिकल व्यवस्था में यह संभव नहीं होगा.
अच्छा लिखा है। कुछ और अनुभव बताये जायें भाई बसों के।
ब्लूलाइन बसों की वास्तविक तस्वीर दिखी हिमांशु शेखर जी के इस लेखन में। कितने तरह की बातों के अलावा, झगड़ा करना, आपसी तालमेल बनाकर चलना, जेबकतरों और मोबाइल चोरों से बचने के लिए मानसिक व शारीरिक सतर्कता बढ़ाना.......सच कहा है इन्होंने “….राजधानी की ब्लूलाइन बसें चलती-फिरती सामाजिक पाठशाला से कम नहीं हैं”
badhal aur belagam hindustan kee aslee tasvir dekhnee ho to blu line ka safar jarur kijiye. vakaye ye basen ve tapte thikane hain, jahan se gujar kar roj himanshu jaise sunahre shahree kundan bankar nikal rahen hai.
dille ke sarakon ko pahle caron se khali karo fir kisi ek ko doshi tharao. ek kargar parivahan vyavastha lagu karne ke jarurat hai.
"यकीन मानिए राजधानी की ब्लूलाइन बसें चलती-फिरती सामाजिक पाठशाला से कम नहीं हैं।"
यकीन कर लिया जनाब. पर सामाजिक पाठ से ज्यादा यह मौत बाँटती हैं. सैकड़ों निर्दोष नागरिक इन का शिकार हुए हैं. पर कोई कुछ नहीं कर सकता. जिनके पास कुछ करने का अधिकार है वह ही तो मालिक हैं इन बसों को.
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