मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Friday, September 07, 2007
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव : बदलता रूप
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव : बदलता रूप
ब्रजेश झा, किरोड़ीमल के छात्र रह चुके हैं,और फिलहाल पत्रकारिता में रमे हुए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव को लेकर उन्होंने यह विशेष रिर्पोट अनुभव को दी है।
इसमें छात्र राजनीति के तमाम पक्षों पर नजर डाली गयी है। आज तो डूसु का चुनाव भी है, तो इस रिर्पोट के लिए ब्रजेश झा को दिल से शुक्रिया.......
दिल्ली विश्वविद्यालय का नया सत्र दो महिना पुराना हो चुका है। आज तो यहां नये सत्र का पहला उत्सव हो रहा है। यहां छात्र-संघ को चुनाव हो रहा है और विद्यार्थी इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में व्यस्त है। यहां दो महत्वपूर्ण बातें सामने आती है- पहली बात यह कि अगर कोई भी लोकतांत्रिक चुनाव उत्सव की तरह मने तो उसका महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। इस लिहाज से दिल्ली वि. छात्र संघ का चुनाव अपनी अहमियत रखता है। दूसरी बात यह है कि सन् 1954 से 1971 तक अप्रत्यक्ष और उसके बाद से अब तक मौजूदा स्वरूप में उसका अवाध रूप से होते रहना काबिले-गौर है। यह साधारण बात नही है।
आजादी के महज सात वर्ष बाद नई लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में विश्वविद्यालय स्तर पर लगातार इस प्रक्रिया का मजबूत होते जाना बेहद महत्वपूर्ण है। देश का और कोई दूसरा विश्वविद्यालय ऐसा व्यवस्थित रूप सामने नहीं रखता है। यह भी अपने आप में महत्वपूर्ण है कि राजधानी में होने वाले किसी भी चुनाव की अपनी अलग अहमियत होती है। इसका संदेश देश की भीतरी हिस्सों में जाता है। इसलिए इसका व्यवस्थित रूप देश के अन्य भागों में होने वाली चुनावी प्रक्रिया के लिए पाठशाला की भूमिका निभा सकता है। इस रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव (डूसु) का चुनाव देश के अन्य विश्वविद्यालयों से अलग और संख्या के लिहाज से भी बड़ा है। शायद डूसु का चुनाव विश्व का सबसे बड़ा छात्र चुनाव है। इसमे लगभग अस्सी कॉलेज हैं और यहां अधिकतम छात्र अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। देश की बदलती राजनीतिक, सामाजिक स्थिति का छात्र राजनीति पर असर हुआ है। अन्य विश्वविद्यालयों के साथ दि.वि. में चलने वाली छात्र राजनीति भी प्रभावित हुई।
यह शताब्दी के अंतिम दशक का दौर था। अब तक छात्र राजनीति सामूहिकता से हटकर व्यक्तिगत सोच पर आकर टिक गयी थी। छात्र राजनीति में मौलिक समझ वाले छात्रों का ओना लगभग बंद हो गया। वे इस बदलती अर्थव्यवस्था में जीवन जीने के साधन ढ़ूढ़ने में ज्यादा व्यस्त रहने लगे। दूसरी बात यह कि इनके प्रेरणा-स्त्रोत भी सूख गये थे। नेताओं की वैसी पीढ़ी जो लगातार इनके बीच अलख जगाने का काम करती थी, तब तक खत्म हो गयी थी। जेपी के बाद पहली बार 1988 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की पहली आम सभा दि.वि. में हुई थी। उस वक्त यहां के अध्यक्ष नरेन्द्र टंठन हुआ करते थे। छात्रों के बीच भ्रष्टाचार के विरूद्ध अलख जगाने का काम विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया था। बाद मे ऐसे उदाहरण नहीं मिलते हैं। आजादी के बाद सन् 1974 में बिहार का छात्र आंदोलन संभवत: पहला छात्र आंदोलन था। इसी आंदोलन से जन्में कई नेता आज महत्वपूर्ण हैसियत रखते हैं। 1975 में यहां के अध्यक्ष अरूण जेटली थे। आगे विजय गोयल, अजय माकन जैसे लोग छात्र राजनीति से उभरे। पर 1990 के बाद जो बदलाव आए उसमें महत्वाकांक्षाएं हावी रहने लगी। गे इसे पूरा करने में डूसु चुनाव एक बन कर रह गया, जबकि अन्य विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति इसमें पीछे रह गयी। यहां अमित मल्लिक, नीतू वर्मा जैसे छात्र नेता इसी महत्वाकांक्षा को विस्तार देते हैं।
हिन्दू कॉलेज के प्राध्यापक रतन लाल कहते हैं- एक तरह से डूसु का चुनाव प्रजातांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद को मजबूत करता है। यह चुनाव प्रक्रिया एक शुरूआती अभ्यास है, छात्रों पर आगे आने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था की जिम्मेदारी को वहन करने की। लेकिन, इसमें सामाजिक, राजनीतिक, यथार्थ का विस्तार भी नजर आता है।
डूसु चुनाव कई मामले में महत्वपूर्ण है। यहां अन्य राज्यों की सामाजिक, राजनीतिक चेतना का भी प्रतिबिंब नजर आता है। इतने के बावजूद यहां की राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि यह धीरे-धीरे छात्रों के मुद्दे से दूर हटती गयी है। पिछले कई वर्षों से यहां के चुनाव से बुनयादी मुद्दे छंटते गये हैं। राजनीति मुद्दे हीं यहां ज्यादा उफान लेते हैं। छात्र-संघ कार्यालय में मूर्ति विवाद का मामला हो तो वह उफान मारेगा, लेकिन वहीं वि.वि. के छात्र अरविंद झा की हत्या का मामला फिर नार्थ-इस्ट की एक छात्रा के साथ बलात्कार का मामला, तो इन मुद्दों पर कानाफूसी के अलावा कुछ भी नहीं होगा। ऐसे में छात्र अपने नेताओं से क्या उम्मीदें रख सकते हैं...?
यहां मुख्य रूप से दो छात्र दलों का दबदबा है, और भी दल है किन्तु केवल लोकतांत्रिक फल-लाभ के लिए। यहां कई ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें चुनावी मुद्दा बनाया जा सकता है, लेकिन ऐसा होता नहीं है।
अब छात्र जीवन का ना होना ही छात्र राजनीति में शून्यता को जन्म देता है। नये छात्र नेता अपना भविष्य राजनेता के रूप मे देखते हैं और डूसु का चुनाव इस ऊंची मंजिल तक पहुंचने का सबसे सरल तरीका है।
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3 comments:
सचमुच काफी बदली है राजनिती दिली बिस्वविद्यालय की
आज पहली बार आपके ब्लाग पर आना हुआ। सार्थक हुई घुमक्कड़ी। बधाई...
बहुत सही लगा ब्रजेश जी का यह कहना कि “…….तो इन मुद्दों पर कानाफूसी के अलावा कुछ भी नहीं होगा। ऐसे में छात्र अपने नेताओं से क्या उम्मीदें रख सकते हैं...? ” बहुत अच्छा होता जब छात्र नेताओं की यह तस्वीर बदलती। फिर “अब छात्र जीवन का ना होना ही छात्र राजनीति में शून्यता को जन्म देता है। नये छात्र नेता अपना भविष्य राजनेता के रूप मे देखते हैं और डूसु का चुनाव इस ऊंची मंजिल तक पहुंचने का सबसे सरल तरीका है”
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