कल आपने मिहीर की बात सुनी...चक दे इंडिया पर। सभी ने खुलकर अपनी बात कही है। यूनूस भाई और विजय ने शायद विस्तार से अपनी बात रखी है। ठीक इसके बाद मिहीर ने इन लोगों के सवालों का उत्तर दिया है। हम उन्हीं बातों को यहां रख रहे हैं। एक-एक कर सभी की बातें यहां ऱखी जा रही है-
Manish said...
achchi sameeksha likhi hai aapne.shukriya!
4:18 AM
vijay said...
बहुत अच्छा लगा चकदे..... पर मिहिर की समीक्षा जिसमें शाहरुख और शिमित अमीन की फिल्म स्टाइलों पर एक नजर के अलावा भी बहुत कुछ दिया गया है। एक जगह मिहिर ने लिखा है, "सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है..." मैं इससे सहमत हूं मगर पूर्णतः नहीं क्योंकि बीच-बीच में विभिन्न विषयों पर कई मुस्लिम किरदार वाली फिल्में आती रही हैं यथा- फना, अनवर, मिशन कश्मीर, फिजा, मकबूल, शूट आउट एट लोखंडवाला, ब्लैक फ्राइडे...अब इनमें कुछ को तो मुख्यधारा की सिनेमा में रख ही सकते हैं, यह सही है कि हिन्दू नाम वाले किरदार की तरह फ्रिक्वेंट नहीं है।
मिहिर ने कुछेक दृश्यों को पकाऊ कहा है...सही है ...कई बार ऐसा दिखने में आता है कि दृश्य भावनात्मक बनाने के चक्कर में फिल्मकार दृश्य को पकाऊ बना देते हैं।
गिरीजी आपके साथ मिहिर को भी शुक्रिया इस लेखन के लिए
4:41 AM
BHUVNESH SHARMA said...
मैंने भी कल ही यह बेहतरीन फ़िल्म देखी. सबसे अच्छा लगा कि क्रिकेट के महिमामंडन वाली तमाम फ़िल्मों से हे हर मायने में सफ़ल है
5:13 AM
yunus said...
सही कहा ।
कुछ कारण समझ में आते हैं । मुस्लिम नायक बॉक्स ऑफिस के पैमान पर खरा नहीं उतरता ।
मुस्लिम नायक होने से फिल्म एक खास तरह के खांचे में अटक जाती है ।
मुस्लिम नायक एक सुविधा की बजाय दुविधा ज्यादा पैदा करता है ।
चक दे, के बाद ये लगने लगा है कि यशराज जैसे बड़े बैनरों को सिनेमा की बदलती दुनिया का
अहसास हो गया है । तारारम पम और झूम बराबर में यशराज ने बड़ी गहरी चोट खाई है ।
जाहिर है कि अब उनके कारखाने में पुराने खांचों को कबाड़ी के हवाले करके नए खांचे तैयार
करने पर काम किया जाने लगा होगा ।
चकदे की सबसे बड़ी खासियत ये है कि तमाम फिल्मी झटकों के बावजूद ये फिल्म मध्यवर्ग की
फिल्म है । जिसका नायक स्कूटर पर चलता है । वो भी खटारा ।
लड़कियां भी वैसे ही संघर्ष कर रही हैं जैसे हमारे घर मुहल्लों की लड़कियां करती हैं ।
सिस्टम के खिलाफ जाकर जीत हासिल करना हर भारतीय की दमित इच्छा है ।
और अंकुश जैसी नारेबाज़ फिल्मों से लेकर सनी देओल के घूंसों और फिर अभी अभी तक की
नाना पाटेकर नुमा फिल्मों तक कई फिल्मों ने इसी आधार पर झंडे गाड़े हैं ।
चकदे ने हॉकी के प्रति हमारे मन में दबे प्यार को उभार दिया है । बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन का प्यारा दोस्त
फोन पर बात करे तो प्यार उभरता नहीं । पर जब सामने आ जाए तो हम रोमांचित हो जाते हैं ।
प्यार छलक छलक जाता है । क्रिकेटी बुखार के बावजूद एक आम भारतीय हॉकी से प्यार करता है ।
दिक्कत ये है कि हॉकी में टीम जीत नहीं रही ।
अगर भारतीय हॉकी सुधरे और टीम दुनिया में सिरमौर हो जाए तो देखिए हम सब हॉकीबाज़ों को सिर माथे पर लगायेंगे ।
चक दे एक झूठी उम्मीद बंधाती है ।
काश कि फिल्मों से सिस्टम बदल पाता ।
6:00 AM
सुरेश Suresh नागर Nagar said...
बहुता ही अच्छा विषलेशण किया है, पर बस एक चीज़ के बारे में कहना चाहूंगा की - टॉम ऐंड जैरी में, चूहे का नाम जैरी है - टॉम तो बागड़ बिल्ला है.
7:02 AM
संजय तिवारी said...
शब्दों का चुनाव बहुत उम्दा है.
और फिर अपने मिहीर भाई ने क्या कहा...गौर करें-
7:32 AM
mihir said...
बिजय आपकी बात ठीक है कि मुस्लिम किरदार फिल्मों में आते रहे हैं लेकिन जब मैनें लिखा कि 'मुख्यधारा के सिनेमा में नायक' तो बात थोडी अलग है. ज़रा गौर कीजिये जिन फिल्मों का आपने नाम लिया.. फना, अनवर, मिशन कश्मीर, फिज़ा, ब्लैक फ्राइडे.. क्या इन सभी का मूल विषय आतंकवाद नहीं? और अब आतंकवाद पर फिल्म बनायेंगे तो मुख्य किरदार तो मुस्लिम ही होगा ना! हाँ दृष्टि का फर्क हो सकता है और ये मानना पडेगा कि इनमें से कई फिल्में एक सही दृष्टिकोण के साथ बनाई गयी हैं. लेकिन मेरा कहना ये है कि कोई ऐसा विषय जिसका मुस्लिम समाज और उसकी समस्याओं से सीधा लेना-देना ना हो (जैसा चक दे में है) वहाँ कोई मुस्लिम किरदार नायक क्यों नही होता? यूँ ही, बिना किसी वजह... कोई मसाला फिल्म जिसका उद्देश्य केवल पैसा कमाना हो, जो हमें बिल्कुल पसंद ना आये, जिसमें कोई संदेश ना हो, जिसका यथार्थ से दूर दूर तक कोई वास्ता ना हो. लेकिन जिसका नायक मुस्लिम हो (यूँ ही!). यह अब संयोग से भी नहीं होता...
-मिहिर
12:10 PM
mihir said...
अब अगर मैं अपनी बनाई परिभाषा के अनुसार फिल्मों की चीर्-फाड करूँ तो जो फिल्में मेरी इस 'मसाला फिल्म-मुस्लिम नायक' परिभाषा में आ सकती हैं वो होगीं- धूम जिसमें एक नायक अली है. (यहाँ भी वो द्वितीयक भूमिका में है और उसका ताल्लुक गैर-कानूनी धंधों से दिखाया गया है). तिग्मान्शू धूलिया की चरस याद आती है जिसमें एक मुस्लिम किरदार नायक था और जहाँ तक मुझे याद है दो लडकों की कहानी (जिम्मी शेरगिल तथा उदय चोपडा) होने के बावजूद वो ही मुख्य नायक था. यूँ तो रंग दे बसँती का नाम भी लिया जा सकता है लेकिन अबतक आप मेरी बात समझ ही गये होगें. अपर्णा सेन की मि. एण्ड मिसेस. ऐयर इसका सुन्दर उदाहरण है कि जब हम एक मुस्लिम को हमारे दिमाग़ में बना दी गयी छवि से उलट पाते हैं तो कितना अजीब और आश्चर्य का एहसास होता है. और् हमारी फिल्में इन स्टिरियोटाइप छवियों के निर्माण में एक प्रमुख कारक हैं.
12:52 PM
mihir said...
यूनुस आपने जो 'मध्यवर्ग की फिल्म' वाली बात कही है उसका मैं कायल हो गया. हिन्दी मुख्यधारा का सिनेमा एक पूँजीवादी सिस्टम का उपकरण है और इस कारण या तो अन्त में हमेशा यथास्थितिवाद की पुष्टि होती है या समस्या का मसीहाई हल. लेकिन यह दर्शकवर्ग ही तो है जो आम आदमी के असंतोष को कहीं ना कहीं जगह देनी ही पडती है इन पैसेवाले निर्माताओं को. जैसा आपने लिखा 'खटारा स्कूटर पर चलने वाला मध्यवर्ग जिसकी दमित इच्छा है सिस्टम के खिलाफ जाकर जीत हसिल करना'. और यहीं मेरी बात पुष्ट हो जाती है जब मैनें ये इशारा किया है की यहाँ शाहरुख एक मुस्लिम का नहीं एक निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है. वैसे ये एक बहस का मुद्दा है कि हम किसे मुस्लिम समाज क ठीक प्रतिनिधित्व मानेगें? आप अपनी बात रखें... बात आगे बढेगी...
और शुक्रिया सुरेश का (वैसे ही, सुरेश क्या आपने 'दो और दो पाँच' देखी है?) मेरी गलती सुधारने के लिये. इस लेख का इंग्लिश रूपान्तर पिछले दस दिनों से वेब पर है लेकिन ये भूल किसी ने नोटिस नहीं की और आपने एक ही दिन में पकड लिया! तो ये केवल आपकी तरीफ नहीं रही अब... ये हिन्दी की जागरुकता का सबूत है!
आ गया पटाखा हिन्दी का
ReplyDeleteअब देख धमाका हिन्दी का
दुनिया में कहीं भी रहनेवाला
खुद को भारतीय कहने वाला
ये हिन्दी है अपनी भाषा
जान है अपनी ना कोई तमाशा
जाओ जहाँ भी साथ ले जाओ
है यही गुजारिश है यही आशा ।
NishikantWorld