मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Thursday, August 23, 2007
सफ़र बदल रहा है ग्रामीण भारत की तस्वीर
कहते हैं सफ़र में कई मोड़ आते हैं, और हर मोड़ पे सफ़र हमें खास अंदाज में कुछ कहता जरूर है। सफ़र के इसी अंदाज से रु-ब-रु होने का मौका मिला दिल्ली में । यहां एक संस्था है- सफ़र । समाज में उपेक्षित तबकों की बेहतरी और उनके सशक्तीकरण के के मद्देनजर सफ़र संवाद और गतिविधियों का खुला मंच है। खासकर दिल्ली में सफ़र ने लगातार हीं संवाद का माहौल बनाए रखा है। दिल्ली के अलावा बिहार के कुछ ग्रामीण इलाकों में भी यह संस्था बढ़-चढ़ कर काम कर रही है।
सफ़र ने बिहार के शिवहर जिले के कुछ ग्रामीण युवाओं को सिल्वर स्क्रीन की दुनिया में प्रवेश कराने का जिम्मा उठाया है। आप चौंकिए मत, इन्हें नायक (अभिनेता) नहीं बनाया जा रहा है, बल्कि ये अब फिल्म बना रहे हैं। कुछ फिल्में बनकर तैयार हो चुकी है। उदयपुर की संस्था शिक्षांतर ने इन युवाओं को फिल्म-निर्माण के क्षेत्र में प्रशिक्षण दिया तो इनके अंदर छिपी प्रतिभा उभर कर सामने आ गयी।
अभय, रामप्रवेश और विजय ने यह सिद्ध कर दिया कि कामयाबी को मेहनत और लगन से कोई भी हासिल कर सकता है। ये सभी युवा हैं। उम्र 18 से 20 साल के बीच। लेकिन जब आप इनके द्वारा बनायी गयी लघु फिल्में को देखेंगे तो शायद आप भी बोल पड़ेगें- “क्या बात है.......!” रामप्रवेश , विजय और अभय शिवहर के अपने गांव में शिक्षा घर और क्लब चला रहे हैं। इनमें जोश है, जो इनसे बात करने से साफ झलकता है। विजय कहते हैं
“मेरे पास आइडिया है, मैं आस-पास होने वाली घटनाओं को ध्यान में रखकर फिल्म बना सकता हूं। और हां, मैंने जो फिल्म उदयपुर के वर्कशॉप में बनायी है, वह भी तो कुछ ऐसा हीं कहती है।” इसी अंदाज से ये तीनो बोल रहे हैं। शायद आने वाला वक्त इन्हें और भी मौका देने वाला है। ये तीनो जिस परिस्थिती में बिहार से आये हैं, वो भी काबिले-तारिफ है। गौरतलब है कि बिहार के कई इलाकों में इन दिनों बाढ़ ने भयानक तबाही मचा रखी है। आप भयावकता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि इन लोगों ने 35 किलोमीटर की दूरी 6 घंटे में पूरी की तब जाकर स्टेशन तक पहुंचे। विजय की फिल्म भी बाढ़ से जुड़े सवालों को ही उठाती है। जब विजय से पूछा गया कि अब आगे क्या करने का विचार है तो वो बेबाकी से बोल उठा -
“मैं गांव जाकर सबसे पहले अपनी फिल्म गांव वालों को दिखाऊंगा, ताकि वे समझ सकें कि मैं भी कुछ कर सकता हूं, मुझमें भी फिलींग है........मैं आने वाले समय में सफ़र के सहयोग से अपने गांव में सामुदायिक फिल्म केन्द्र बनाने का प्रयास करूंगा, मुझे आशा है कि गांव वालों को इससे जरूर फायदा पहुंचेगा।”
सफ़र के इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए। सफ़र के राकेश कुमार सिंह, जो सराय- सीएसडीएस से जुड़े हैं, कहते हैं कि इनलोगों ने सचमुच कमाल कर दिखाया है। वे बताते हैं कि “आनेवाले समय में इनके द्वारा बनायी गयी फिल्में बिहार में तो दिखायी हीं जाऐंगी, साथ-साथ दिल्ली में भी इसे सामने लाया जाएगा, हम और भी संभावनाओं पर गौर कर रहे हैं।”
गौरतलब है कि बिहार के गांवों में चल रहे शिक्षा घर और क्लब सफ़र के सौजन्य से हीं चल रहे हैं, और इन सभी सार्थक प्रयासों के पिछे राकेश कुमार सिंह का हीं हाथ है।
समाज मे इस प्रकार के प्रयास हीं सही अर्थों में सार्थक प्रयास कहलाते हैं। आशा की किरण मात्र से कई लोगों में उत्साह छा जाता है। इन लोगों से मिलने और इनकी फिल्मों को देखने आए दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र मयंक कहते हैं,
“बदलाव इसी का नाम है”।
लेकिन सवाल यह उठता है कि विजय, अभय जैसे लाखों युवाओं को ऐसे मौके क्या लगातार मिलते रहेंगे? यदि सफ़र जैसी संस्था और भी संख्या में सामने आए तो शायद तस्वीर जल्द बदल सकती है।
यह बदलाव तो है ही...यदि बिहार जैसे पिछड़े राज्य के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लड़के यदि इस कदर बात करे। विविध क्षेत्रों में किसी भी संस्था द्वारा जनहित में किया गया कार्य स्वागत योग्य है जो भटकते युवाओं को दिशा दे, सक्षम हाथों को कौशल दे...
ReplyDeleteशुक्रिया गिरिन्द्रजी इस अनुठे प्रयास हे रू ब रू कराने के लिए. बेहद खुशी हुई कि बिहार के दूर-दराज के गांवों में ऐसे सृजनात्मक प्रयास हो रहे हैं और युवाओं के लिए रचनात्मक मंच प्रदान करने के काम में भी कुछ संस्थाएं लगी भी हुई हैं वर्ना बिहार से तो हाल-फिलहाल में केवल नकारात्मक खबरें ही आती हैं. विजय की जिस फिल्म का आप उल्लेख कर रहे हैं, उसी से जुड़े बहुत बड़े घोटाले को भी हम अभी भूल नहीं पाए हैं.
ReplyDeleteपर गिरिन्द्रजी क्या ऐसे अवसर केवल एक-दो व्यक्तिगत या सांगठनिक प्रयासों के बल पर आ जा सकेगा - ये मैं इसलिए कह रही हूं कि मुझे इसमें संदेह लगता है. दरअसल हम उस दौर में रह रहे हैं जहां सामुदायिक बोध का लोप न कहें तो ह्रास तो हो ही रहा है. और फिर ऐसे में ये प्रयास किस तरह स्थायी और दीर्घकालीन बन पाएगा, उस पर विचार करना हमारी पीढ़ी के एजेंडे में ज़रूर होना चाहिए.
एक बार फिर आपको बहुत-बहुत धन्यवाद
चन्द्रा
चंद्रा जी के नाम......
ReplyDeleteपहले शुक्रिया कि आप ब्लाग पे आयीं।
अब बात पते कि-
जहां तक काम की बात है तो बिहार में ऐसे हजारों काम हो रहे हैं। दिक्कत हमारी है, हम नहीं लाना चाह रहे हैं। दरअसल मेरा यह पर्सनल विचार है। मेरा साफ तौर मानना है कि ऐसी खबरों को सामने लाना हमारा दायित्व बनता है।
जहां तक आपके संदेह की बात है तो मैं उससे सहमत हूं, लेकिन सफ़र की तरह और भी कई संस्थाएं काम कर रही हैं..शायद धीरे हीं..लेकिन बात बने...
nishchay hi prayas ho rahe hain par kya film nirman ke baare me kabhi kisi ne socha tha? mere vichar se ye ek krantikaari kadam hai; kyonki audio-visual media ke jariye jitna kuchh samjhaya sakta hai utna shayad kisi aur madhyam se nahi.
ReplyDeleteGramin samaj me, jahan shikshiton ki sankhya kam hai, aise hi madhyam se jagrukta behtar dhang se phailai ja sakti hai, wo bhi unki jubaan se jo usi paristhiti me rehte hon
ये रिपोर्ट आपके ब्लोग पर देखकर अच्छा लगा.सच में सफर का काम देखकर मुझे उसदिन बहुत अच्छा लगा और मज़ा आया. खासकर विजय की फिल्म जिसपर उसदिन काफी बात भी हुई थी. राकेश की जितनी तारीफ की जाए कम है ऐसे काम को आगे बढाने के लिये. लगे रहो...
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