मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Wednesday, August 29, 2007
चक दे इण्डिया देखते हुए एह्सास
मिहिर ने चक दे इंडिया फिल्म पर अपनी बात कही है.....आपने इसके बारे में अभी तक काफी पढ़ लिया होगा....लेकिन एक छात्र की नजर में इस फिल्म का आनंद उठाएं........
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ये एक अजीब सी तुलना है. पिछले सप्ताह मैनें अमिताभ को "सी.एन.एन. आई.बी.एन." पर बोलते सुना. स्वत्नंत्रता दिवस के दिन अमिताभ अपनी पसन्दीदा फिल्मों के बारे में बात कर रहे थे. अम्रर अकबर एन्थोनी की बात आने पर उन्होनें कहा कि हम सभी को लगता था कि इतना अतार्किक विचार कैसे चलेगा? संयोगों और अतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग का फितूर है. आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हंसते हैं. एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढता हुआ दिखाया जाना एक मेडीकल जोक है. लेकिन इन सबके बावजूद कुछ है जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड लिया. सारी अतार्किकतायें पीछे छूट गयीं और कहानी अपना काम कर गयी. अब आप क्या कहेंगे इसे...
मैं इसे एक फिल्मी नाम देता हूँ… दिल का रिश्ता. पिछ्ले ह्फ्ते शिमित अमीन की फिल्म चक दे इण्डिया देखते हुए भी मुझे ऐसा ही एह्सास हुआ. वैसे फिल्म के कई प्रसंग तो बहुत ही पकाऊ थे जैसे कबीर खान के घर छोडने का प्रसंग जहाँ पडोस में रहने वाला बच्चा अपने पिता से कह्ता है, "पापा मैनूं भी गद्दार देख्नना है". इस जगह भारी मेलोड्रामा दिखाई देता है. या वो सारी बोर्ड मीटिंग्स जहाँ चेयरमैन बार-बार ये ही दोहराता है, "ये चकला-बेलन चलाने वाली भारतीय नारियाँ हैं". क्या ये भी स्टिरियोटाइप किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके बावजूद मुझे फिल्म पसन्द आयी और इसका कारण वो ही दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे दिल से बनाई गई फिल्म है जो नज़र आ ही जाता है.
सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है. हमारे दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख ने भी हमेशा राज या राहुल या वीर प्रताप सिंह या मोहन भार्गव जैसी भूमिकाएँ ही निभाई हैं. हाँ हे राम् का अमज़द एक अपवाद कहा जा सकता है. शायद जयदीप के लिये सबसे मुश्किल ये ही रहा हो की यशराज को एक ऐसी कहानी के लिये कैसे मनाया जाये जिसके नायक का नाम कबीर खान है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर से देखा जाना चाहिये. आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या ये पहले सम्भव था या हो सकता था? पुराने धुरंधर याद कर पायेंगे कि अमिताभ ने अपनी बादशाहत के दौर में मुस्लिम नायक की भूमिकाएँ भी निभाई हैं लेकिन शाहरुख के खाते में ये तथ्य नहीं है. यह समय का परिवर्तन है. मित्रों का तो यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी दुर्घटना नब्बे के दशक में ही सम्भव थी. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक की शुरूआत में जो किया यह उसी का असर है. इसलिये चक दे अभी भी एक अपवाद ही कही जाएगी, मुख्यधारा नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत अपवाद है.
चक दे एक खेल आधारित फिल्म का मूल नियम ध्यान रखती है और वो है कमज़ोर की विजय. भारत द्वारा निर्मित सबसे चर्चित खेल फिल्म लगान की तरह चक दे भी कमज़ोरों के विजेता बनकर निकलने की कहानी है. यहाँ आपको सारे भेदभाव दिख जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, खेल के आपसी भेदभाव और इनके खिलाफ लडाई साथ-साथ जारी है. टाँम एण्ड जैरी की लडाई में जीत हमेशा टाँम की ही होती है और यही नियम हमारी फिल्मों पर भी लागू होता है. सच यही है कि आम दर्शक ज़िन्दगी की लडाई हारे हुये किरदार से ही रिलेट करता है. वहीं उसे अपना अक्स दिखाई देता है.
हाँकी की भारत में क्या जगह थी इसे दिखाने के लिये बहुत सुन्दर प्रतीक चुना गया है. देश की राजधानी के ह्रदयस्थल को निहारती मेजर ध्यानचन्द की मूरत उस केन्द्रीय स्थान की गवाही देती है जो आजाद भारत में हाँकी ने पाया था. मेजर ध्यानचन्द हाँकी स्टेडियम जैसे लुटियंस की बनाई दिल्ली को निहार रहा है. इंडिया गेट के मध्य भाग से देखने पर ठीक सामने राष्ट्रपति भवन दिखाई देता है. अगर आप सुनील खिलनानी की आइडिया आँफ इंडिया का शहर और सपना अध्याय पढें तो मालूम होगा कि इस नक्शे को बनाने में क्या सत्ता संरचना काम कर रही थी. क्यों वायसराय के घर के लिये उन्नयन कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ ध्यानचंद का होना एक कमाल के प्रतीक की खोज है. और इसका श्रेय भी मैं जयदीप साहनी को दूंगा जिन्होंनें एकबार फिर साबित कर दिया है की नये बनते शहर की बुनावट और उसकी सत्ता संरचना को उनसे अच्छा समझने वाला हिन्दी सिनेमा में और कोई नहीं है. खोसला का घोसला के बाद चक दे एक और उपलब्धि है जयदीप के लिये. ये दिल्ली है बिना किसी लाग-लपेट के.
और वो सोलह लडकियाँ... सोलह अलग-अलग नाम, सोलह अलग-अलग किरदार, सोलह अलग-अलग पहचान. हर एक ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. वैसे कोमल चौटाला को सबसे ज्यादा पसंद किया गया है और खुद ममता खरब ने कहा है कि कोमल मे मेरी छवि है लेकिन काम के मामले में मेरी पसंद शिल्पा शर्मा रही. आपने उसे खामोश पानी में देखा होगा और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में नहीं देखा होगा. लेकिन आप बिन्दिया नायक को नहीं भूल सकते. अगर ये उनका फिल्म जगत में आगमन माना जाये तो ये एक धमाकेदार आगमन है. वो आयी… वो छायी टाइप! लेकिन आखिर में श्रेय तो जयदीप को ही जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, तेज़्-तर्रार किरदार रचे.
शाहरुख के लिये ये फिल्म स्वदेस वाले खाते में जाती है जहाँ उसने अपना किंग खान वाला स्टाइल छोडकर काम किया है. स्वदेस हालाँकि ज्यादा परतदार फिल्म थी लेकिन चक दे भी उसी खाते में है. स्तर भले कम हो लेकिन खाना वोही है. शाहरुख को चाहनेवालों के लिये ये एक नया रूप तो है ही. (हाँ मेरी पसंद अभी भी कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख का सर्वश्रेष्ठ काम मानती है. ना स्वदेस को और ना चक दे को).
ये फिल्म तो बस उम्मीद है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों की मुख्यधारा किसी नये प्रयोगशील रास्ते पर आगे बढ रही है...
http://youtube.com/watch?v=1lp7nbAjUqk
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9 comments:
achchi sameeksha likhi hai aapne.shukriya!
बहुत अच्छा लगा चकदे..... पर मिहिर की समीक्षा जिसमें शाहरुख और शिमित अमीन की फिल्म स्टाइलों पर एक नजर के अलावा भी बहुत कुछ दिया गया है। एक जगह मिहिर ने लिखा है, "सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है..." मैं इससे सहमत हूं मगर पूर्णतः नहीं क्योंकि बीच-बीच में विभिन्न विषयों पर कई मुस्लिम किरदार वाली फिल्में आती रही हैं यथा- फना, अनवर, मिशन कश्मीर, फिजा, मकबूल, शूट आउट एट लोखंडवाला, ब्लैक फ्राइडे...अब इनमें कुछ को तो मुख्यधारा की सिनेमा में रख ही सकते हैं, यह सही है कि हिन्दू नाम वाले किरदार की तरह फ्रिक्वेंट नहीं है।
मिहिर ने कुछेक दृश्यों को पकाऊ कहा है...सही है ...कई बार ऐसा दिखने में आता है कि दृश्य भावनात्मक बनाने के चक्कर में फिल्मकार दृश्य को पकाऊ बना देते हैं।
गिरीजी आपके साथ मिहिर को भी शुक्रिया इस लेखन के लिए
मैंने भी कल ही यह बेहतरीन फ़िल्म देखी. सबसे अच्छा लगा कि क्रिकेट के महिमामंडन वाली तमाम फ़िल्मों से हे हर मायने में सफ़ल है
सही कहा ।
कुछ कारण समझ में आते हैं । मुस्लिम नायक बॉक्स ऑफिस के पैमान पर खरा नहीं उतरता ।
मुस्लिम नायक होने से फिल्म एक खास तरह के खांचे में अटक जाती है ।
मुस्लिम नायक एक सुविधा की बजाय दुविधा ज्यादा पैदा करता है ।
चक दे, के बाद ये लगने लगा है कि यशराज जैसे बड़े बैनरों को सिनेमा की बदलती दुनिया का
अहसास हो गया है । तारारम पम और झूम बराबर में यशराज ने बड़ी गहरी चोट खाई है ।
जाहिर है कि अब उनके कारखाने में पुराने खांचों को कबाड़ी के हवाले करके नए खांचे तैयार
करने पर काम किया जाने लगा होगा ।
चकदे की सबसे बड़ी खासियत ये है कि तमाम फिल्मी झटकों के बावजूद ये फिल्म मध्यवर्ग की
फिल्म है । जिसका नायक स्कूटर पर चलता है । वो भी खटारा ।
लड़कियां भी वैसे ही संघर्ष कर रही हैं जैसे हमारे घर मुहल्लों की लड़कियां करती हैं ।
सिस्टम के खिलाफ जाकर जीत हासिल करना हर भारतीय की दमित इच्छा है ।
और अंकुश जैसी नारेबाज़ फिल्मों से लेकर सनी देओल के घूंसों और फिर अभी अभी तक की
नाना पाटेकर नुमा फिल्मों तक कई फिल्मों ने इसी आधार पर झंडे गाड़े हैं ।
चकदे ने हॉकी के प्रति हमारे मन में दबे प्यार को उभार दिया है । बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन का प्यारा दोस्त
फोन पर बात करे तो प्यार उभरता नहीं । पर जब सामने आ जाए तो हम रोमांचित हो जाते हैं ।
प्यार छलक छलक जाता है । क्रिकेटी बुखार के बावजूद एक आम भारतीय हॉकी से प्यार करता है ।
दिक्कत ये है कि हॉकी में टीम जीत नहीं रही ।
अगर भारतीय हॉकी सुधरे और टीम दुनिया में सिरमौर हो जाए तो देखिए हम सब हॉकीबाज़ों को सिर माथे पर लगायेंगे ।
चक दे एक झूठी उम्मीद बंधाती है ।
काश कि फिल्मों से सिस्टम बदल पाता ।
बहुता ही अच्छा विषलेशण किया है, पर बस एक चीज़ के बारे में कहना चाहूंगा की - टॉम ऐंड जैरी में, चूहे का नाम जैरी है - टॉम तो बागड़ बिल्ला है.
शब्दों का चुनाव बहुत उम्दा है.
बिजय आपकी बात ठीक है कि मुस्लिम किरदार फिल्मों में आते रहे हैं लेकिन जब मैनें लिखा कि 'मुख्यधारा के सिनेमा में नायक' तो बात थोडी अलग है. ज़रा गौर कीजिये जिन फिल्मों का आपने नाम लिया.. फना, अनवर, मिशन कश्मीर, फिज़ा, ब्लैक फ्राइडे.. क्या इन सभी का मूल विषय आतंकवाद नहीं? और अब आतंकवाद पर फिल्म बनायेंगे तो मुख्य किरदार तो मुस्लिम ही होगा ना! हाँ दृष्टि का फर्क हो सकता है और ये मानना पडेगा कि इनमें से कई फिल्में एक सही दृष्टिकोण के साथ बनाई गयी हैं. लेकिन मेरा कहना ये है कि कोई ऐसा विषय जिसका मुस्लिम समाज और उसकी समस्याओं से सीधा लेना-देना ना हो (जैसा चक दे में है) वहाँ कोई मुस्लिम किरदार नायक क्यों नही होता? यूँ ही, बिना किसी वजह... कोई मसाला फिल्म जिसका उद्देश्य केवल पैसा कमाना हो, जो हमें बिल्कुल पसंद ना आये, जिसमें कोई संदेश ना हो, जिसका यथार्थ से दूर दूर तक कोई वास्ता ना हो. लेकिन जिसका नायक मुस्लिम हो (यूँ ही!). यह अब संयोग से भी नहीं होता...
-मिहिर
अब अगर मैं अपनी बनाई परिभाषा के अनुसार फिल्मों की चीर्-फाड करूँ तो जो फिल्में मेरी इस 'मसाला फिल्म-मुस्लिम नायक' परिभाषा में आ सकती हैं वो होगीं- धूम जिसमें एक नायक अली है. (यहाँ भी वो द्वितीयक भूमिका में है और उसका ताल्लुक गैर-कानूनी धंधों से दिखाया गया है). तिग्मान्शू धूलिया की चरस याद आती है जिसमें एक मुस्लिम किरदार नायक था और जहाँ तक मुझे याद है दो लडकों की कहानी (जिम्मी शेरगिल तथा उदय चोपडा) होने के बावजूद वो ही मुख्य नायक था. यूँ तो रंग दे बसँती का नाम भी लिया जा सकता है लेकिन अबतक आप मेरी बात समझ ही गये होगें. अपर्णा सेन की मि. एण्ड मिसेस. ऐयर इसका सुन्दर उदाहरण है कि जब हम एक मुस्लिम को हमारे दिमाग़ में बना दी गयी छवि से उलट पाते हैं तो कितना अजीब और आश्चर्य का एहसास होता है. और् हमारी फिल्में इन स्टिरियोटाइप छवियों के निर्माण में एक प्रमुख कारक हैं.
यूनुस आपने जो 'मध्यवर्ग की फिल्म' वाली बात कही है उसका मैं कायल हो गया. हिन्दी मुख्यधारा का सिनेमा एक पूँजीवादी सिस्टम का उपकरण है और इस कारण या तो अन्त में हमेशा यथास्थितिवाद की पुष्टि होती है या समस्या का मसीहाई हल. लेकिन यह दर्शकवर्ग ही तो है जो आम आदमी के असंतोष को कहीं ना कहीं जगह देनी ही पडती है इन पैसेवाले निर्माताओं को. जैसा आपने लिखा 'खटारा स्कूटर पर चलने वाला मध्यवर्ग जिसकी दमित इच्छा है सिस्टम के खिलाफ जाकर जीत हसिल करना'. और यहीं मेरी बात पुष्ट हो जाती है जब मैनें ये इशारा किया है की यहाँ शाहरुख एक मुस्लिम का नहीं एक निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है. वैसे ये एक बहस का मुद्दा है कि हम किसे मुस्लिम समाज क ठीक प्रतिनिधित्व मानेगें? आप अपनी बात रखें... बात आगे बढेगी...
और शुक्रिया सुरेश का (वैसे ही, सुरेश क्या आपने 'दो और दो पाँच' देखी है?) मेरी गलती सुधारने के लिये. इस लेख का इंग्लिश रूपान्तर पिछले दस दिनों से वेब पर है लेकिन ये भूल किसी ने नोटिस नहीं की और आपने एक ही दिन में पकड लिया! तो ये केवल आपकी तरीफ नहीं रही अब... ये हिन्दी की जागरुकता का सबूत है!
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