तरूण कुमार 'तरूण' आईएनएस के हिन्दी सेवा के प्रमुख हैं, इसलिए मेरे आका भी हुए। खैर, जनाब अपने कार्यों के अलावे साहित्य में रुचि रखते हैं। एक दिन यूं हीं अपना काम खत्म करने के बाद मैं ब्लाग पे हाथ चला रहा था, तो तरूण सर ने भी इसमे अपनी रुचि दिखायी। फिर क्या था, हम दोनों ब्लाग विषय पर बतियाने लगे। मैंने उन्हें अनुभव में कलम चलाने की गुजारिश की, सर तैयार हो गये। आज उन्होने अनुभव को एक कविता दी है।
कविता में काफी बातें छुपी है....तो खुलकर भी बातें जमकर कही गयी है.
आज आप इसे पढ़े, और हां प्रतिक्रिया भी अवश्य दें। इंतजार रहेगा।
गिरीन्द्र
खादी ओ श्वेत खादी
कितने अश्वेत, कितने धब्बेदार हो गए तुम
बापू की दी हुई पहचान
गिरगिट काया पर हो गई गुम
रक्त के अहम भरे कोटि धब्बे
उत्कोच, घोटाले का अनवरत पान
ओह खादी आज भी तुम पर न्योछावर है ये असंख्य जान
बदला है सिर्फ स्वरूप
शायद अब धागा ही हो गया है कुरूप,
पहले तुम्हारी अपील पर
निकलते थे,
सुभाष, धींगरा और वीर भगत
आज अपील नहीं, तुम्हारे इशारे पर
निकलते हैं कितने बगुलाभगत.................
3 comments:
अच्छी कविता है जनाब।
आजकल अच्छा काम कर रहे हैं।
यूं हीं लोगों से अनुभव लेते रहें।
ऐर हां, तरूण जी को भी अच्छी कविता के लिए बधाई...।
उनसे कहें और भी पिटारा से कुछ न कुछ निकालते रहें।
आकांक्षा.
कोलकाता
सही!!
शुक्रिया!
अच्छी रचना है ।आज सभी जगह बगुला भगत ही हैं।
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