Thursday, July 12, 2007

रोजी-रोटी का करतब

तिलक ब्रिज होते हुए जब आप मंडी हाउस जाते हैं, तो छोटे-छोटे बच्चों को सड़क के किनारे अजीब तरह के करतब दिखाते देख सकते हैं। अक्सर इसी रूट से गुजरने के कारण इन्हें जानने की मेरी उत्सुकता बढ़ती चली गयी। एक दिन मैं वहां कुछ देर के लिए रुक गया। रेड लाइट पर बच्चे अपना करतब दिखा रहे थे और उनका पूरा परिवार उनकी निगरानी के लिए इधर-उधर बिखरा पड़ा था। मैंने इन बच्चों के अभिभावकों से बात करनी चाही, तो पहले वे लोग तैयार नहीं हुए। लेकिन मैंने र्धैय से काम लिया। कुछ पल में हीं वे बात करने लगे।

वहीं दूसरी ओर उनके बच्चे अपना दिखाने में लगे हुए थे। ऱीता नाम की इस औरत ने बताया कि यह उनका पुश्तैनी काम है, जिसे लोग नट कहते हैं। बच्चे शुरू से ही इस काम लग जाते हैं और बड़े होकर एक सफल नट बनते हैं। दिल्ली के कई इलाकों में ये लोग अपना करतब दिखाते हैं। बातों ही बातों में मेरी नजर 20-21 साल के एक नौजवान पर गयी। उसका नाम है- अशोक नट। बहुत पहले उसके दादा दिल्ली आए थे। बचपन से ही वह अपने दादा के संग दिल्ली के प्रेमनगर इलाके में रहता है। गौरतलब है कि प्रेमनगर नटों की एक बड़ी बस्ती है। पटेलनगर से कुछ ही दूरी पर प्रेमनगर है। इस बस्ती में इनलोगों का अपना-अपना मकान है। यहां एक घर की कीमत लगभग 5 से 6 लाख है।

नटों की टोली मे 6 से 7 बच्चे होते हैं। यह टोली दिन भर में 500-600 रुपये कमा लेते हैं। इनलोगों में कबीलाई समझ आज भी जिंदा है। बातों से पता चला कि ये लोग छत्तीसगढ़ से आए हैं। वहां के विलासपुर जिला में एक गांव है- बारगांव, यही इनलोगों का पुश्तैनी गांव है। वहां से इन लोगों का आना-जाना लगा रहता है। अशोक नट की बात माने तो वह अभी-अभी फसल लगाकर आया है। वहां उसकी अपनी 20 बीघे जमीन है। जब पढ़ाई की बात हुई तो अशोक बौखला गया। पढ़ाई के प्रति उसका नजरिया है- पढ़- लिख कर क्या होगा...सरकार क्या नौकरी देगी..। मैंने राजकीय विद्यालय से 10वीं की पढ़ाई की है....तो क्या मिला मुझे..।

दरअसल इस नट को अपने व्यवसाय से इतना लगाव है कि वह और कुछ सोच ही नहीं सकता है। इनलोगो के परिवार के बड़े लोग करतब दिखाने दुबई जाते रहते हैं। वहां इनकी कमाई अच्छी हो जाती है। जहां तक शादी-ब्याह की बात है तो 18-19 साल में यहां परिवार बसा दिया जाता है। अशोक बताता है कि कबिलाई-कल्चर में ऐसा हीं होता है।
इन नटों का जीवन काफी अलग है और अजीब भी..। क्योंकि प्रेमनगर में इनकी बस्ती को एक नजर में समझा नहीं जा सकता है....-


“बस्ती बसाना कोई खेल नहीं
बसते-बसते बस जाती है बस्ती...........”

4 comments:

Sanjay Tiwari said...

गिरीन्द्र बाबू,
नट और उनकी जीवनशैली के बारे में अच्छी जानकारी है. लेकिन उससे भी अच्छी बात यह है कि आपकी नजर उन पर पड़ी. और आपने उनके बारे में थोड़ा खंगालने की जहमत उठाई.
एक सलाहः
सिर्फ पोथी-पन्ने की पढ़ाई ही पढ़ाई नहीं होती. जीवन एक किताब है जिसे पढ़ने समझने के लिए शब्द-ज्ञान की जरूरत नहीं होती. उनका अपना पारंपरिक ज्ञान श्रेष्ठ है, हां अगर थोड़ा लिख पढ़ लें तो थोड़ी आसानी हो सकती है.
यह बहुत बड़ा सवाल है कि जो पढ़ रहे हैं वे क्या पढ़ रहे हैं, और जो नहीं पढ़ रहे हैं वे क्या सीख रहे हैं.

परमजीत सिहँ बाली said...

नटों के बारे में बढिया जान कारी है।बधाई।

Anonymous said...

Really you have done good job on "NUTS", you are appreciabble for such good article.

विनीत उत्पल said...

चलिए कुछ तो करने लगे। इस दुनिया में तो हर कोई नट ही तो है। शुभकामना सहित।