Sunday, April 29, 2007

कितना बदल गया.....


देरी के लिए माफ करें. जहां तक शहर पूर्णिया को इरोज के शब्दो में प्रस्तुत करने का वादा था , सो पूरा कर रहा हूं.
यहां इरोज़ के बारे कुछ बता रहा हूं. इरोज़ ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की पढाई की है.आगे पढाई करने की इच्छा नही हुई सो खेती-बाडी में लग गया. ऐसा लगा की आज अपने इलाके का संपन्न किसानो में गिना जाता है.
तो सुनें इरोज़ की जुबानी......


मेरा शहर अब साफ बदल चुका है. हर कुछ में नयापन नजर आ रहा है.इस बदलाव को यहां तक पहुंचने में काफी वक्त लगा है.जब से होश संभाला यहां के लोगो में भय को देख रहा था,शायद इसी कारण अब्बा मुझे पढने के लिए राज्य से बाहर भेज दिए थे. साल मे एक दफे आना होता था तो अपना शहर हमेशा मायूस सा नज़र आता. जब कलकत्ता से यहां अपने गांव के खेती को संभालने आना हुआ तो स्थिती वैसी हीं थी. काफी संर्घष करना पडा. लेकिन २००५-०६ आते-आते इस इलाके की तस्वीर बदलनी शुरू हुई. लोगबाग से लेकर प्रशासनिक हलकों तक बदलाव की बयार बहने लगी.
आज का पूर्णिया और इसके आस-पास का इलाका इसी बदलाव का चमकता चेहरा है. मेरा खुद का मानना है कि सड्के विकास का मापक है तो आप यह मानिए कि यहां भी विकास की आंधी चल पडी है. गांव-गांव तक सड्के बिछ चुकी है. ३० किलोमीटर की दूरी तय करने में दो-तीन साल पहले जहां दो घंटे लगते थे अब मुश्किल से ४० मिनट लग रहे है. तो है न विकास का चमकता रूप . शहर में भी बदलाव की बयार बह चुकी है. सड्को पे कारपेटिंग का काम चल रहा है,वहीं बाजार भी भयमुक्त नज़र आता है. ऐसे कई रूप है इस शहर और इसके आस-पास के इलाको का.
गिरीन्द्र ने कहा तो कम्पयूटर पे हाथ साफ कर ये सब आप लोगो के सामने पेश कर रहा हूं.
आगे भी आपसे बातें होंगी..
आप सभी का
इरोज़

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