Thursday, March 01, 2007

बदल रहा मेरा सिरियापुर...


विजय भाई की यह दूसरी पाती है. लिखने का वादा किया था,सो पूरा भी किया. वैसे इससे पहले भी उन्होने "अनुभव्" के संग गुफ्तगु की थी. इस बार अपने गांव के अनुभव को यहां रख रहे हैं. पेशे से अनुवादक यह शख्स अनुभवों को एक नयी शक्ल देने में माहिर हैं. तो...पढें विजय भाई के गांव-घर की बातें...

यही है मेरा सिरियापुर गांव... सब दिनों से अपने में मस्त रहने वाला। मैं कुछ ज्यादा ही अंतराल पर आया था गांव इसलिए कुछ ज्यादा ही बदलाव दिखा गांव में- हालात, नक्शे, लोग.. सबकुछ बदले हुए। वैसे ननिहाल की तरह भीत का घर यहां मैने कभी नहीं देखा था, लेकिन फूस के घर तो काफी थे जिनका स्थान अब पक्के मकानों ने ले लिया है।
सुबह ही सुबह गांव घूमते पहुंच गए सीवन यादव के यहां दूध लेने, मैं दूध निहारने लगा तो वह बोला, "क्या देखते हो बाबू, मेरी बेटी ने थोड़ा पानी मिला दिया है... फिर भी तुम्हारे दिल्ली-पटना के डेयरी वाले दूध से तो शुद्ध है, यूरिया और सर्फ(डिटर्जेंट) नहीं है इसमें..." उनके उत्तर को सुनकर अपना ठहाका मैं रोक न सका।
कुछ सामान खरीदना था, पहुंच गए चंदे साहु की दुकान पर...अरे इतना बदलाव..। यहां एक फूस की झोपड़ी हुआ करती थी जिसमें सामान रखने के लिए बांस की बत्तियों का तक्खा बना होता था वहीं अभी बिल्डिंग में सीमेंट के रैकों पर सामान बिखऱा पड़ा है। दरवाजा...पहले बांस के झाझन का फट्टक अभी प्लाइवुड के बाद लोहे का ग्रिल। पहले छोटे बोरियों-डब्बों में सामान था, आज वहां बड़ीं बोरियां और कंटर है। कहां थी पहले रंग-बिरंगी शैंपू-डिटर्जेंट-गुटखा-खैनी के पॉचों की लड़ियां और हां अभी की तरह पहले ग्राहकों के हाथों में पॉलीथीन की थैली नहीं, कागजों का ठोंगा देखता था। बगल में सॉलर प्लेट और बैटरी भी देखता हूं जो शायद रात में बल्ब जलाने के लिए है। यहां सबसे ज्यादा बदला हुआ देखा लोगों की बातें। पहले जब दुकान के पास खड़ा होता था तो ढ़ेर सारे ग्रामीण ग्राहक आपस में हंसी-मजाक और चुटकुलों के फब्बारों की अंबार लगा देते थे आज वो रंग बिल्कुल नदारद है... अपने मतलब की बातों के अलावा अगर कुछ सुनाई देता है तो वो है- आज कोर्ट का चक्कर कौन लगा रहा है, किससे किसकी झगड़ा हुई है, किसके विरुद्ध नया षड्यंत्र रचा जा रहा है...उफ्फ..।

जाड़े में दरवाजे पर सुबह-शाम एक खास चीज दिखता है- 'घूर', खर्रा-झाड़ू से जमा किया गया खर-पतवार, टाल का भूसा-पुआल, गीली गोबर और उसकी सूखी टिकिया आदि का ढ़ेर... आग लगने भर की देर है कि बैठ गए सब चारों ओर से घेरा बनाकर। ठंढ़ से निजात पाना तो एक बहाना है, यहां बैठने का उद्देश्य है गुलछर्रे की महफिल सजाना। दरअसल यह एक चौपाल ही है...कभी खबर, कभी समीक्षा, कभी विमर्श, कभी हंसगुल्ले की फुहार और कभी यादों के झरोखों से निकलते चित्र। इस बार भी इस चौपाल में सब लोगों को अपने ग्रामीण श्री महाबल मिश्रा को खूब याद करते देखा जो वर्तमान में दिल्ली में विधायक हैं और पूर्वांचल के सशक्त नेताओं में शुमार किए जाते हैं।

बहुत कुछ निराला है गांव में... कल हाट भी है और गांव में नाच-नाटक भी...देखते हैं कल का रंग कैसा है...

1 comment:

  1. गाँव का यह हालिया बयान बहुत सजीव लगा याद करा दी वह धूल और आड़ियाँ…पर सब मिटता जा रहा है…।यह दु:ख दायी है!!

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