क्या कभी सोचा है कि हम किस कदर बदल रहे हैं? कई बार सोचता हूं और फिर इस सवाल से खुद ही कन्नी काट लेता हूं। लेकिन सच्चाई से कब तक हम या आप दूर भागेंगे। यह सच है कि हम बदल रहे हैं। वैसे बदलाव कोई गलत बात नहीं है लेकिन गलती उस वक्त हो जाती है जब हम उन अभ्यासों से दूर हो जाते हैं जो कभी खुद का हिस्सा हुआ करती थी।
तेज रफ्तार की जिंदगी हमें कभी-कभी सामाजिक बनाने से रोकने लगती है। मैं बदलाव के जरिए इसी सामाजिकता की बात कर रहा हूं। कामकाजी उठापटक के बीच लोगों से मिलना-जुलना लगभग खत्म होने के कगार पर है। यह शिकायत बेहद आम होते जा रही है। वैसे कुछ लोग तमाम व्यस्तताओं के बीच भी लोगों से मिलते -जुलते रहते हैं लेकिन उनका प्रतिशत बेहद कम है।
दफ्तरी आशा-निराशा का बादल इतना घना हो जाता है कि अपने लोगों से भी लोग दूर होने लगते हैं। इंटरनेट-मोबाइल रूपी आभासी दुनिया भले ही संपर्क का माध्यम बन गई है लेकिन उसमें वैसी संतुष्टि नहीं है जो आमने-समाने में मिलती है औऱ जिसके फलस्वरूप मुख से ठहाका निकलता है।
कोई कहता है कि यह शिकायत महानगरी है लेकिन संकेंड और थर्ड टायर शहरों की भी यही समस्या है। माइग्रेशन की वजह से लोगों की संख्या कम हो रही है। लोग जल्दी-जल्दी ठिकाना बदल रहे हैं ऐसे में खोजे भी लोग नहीं मिल पाते। सोसाइटी की बिल्डिंग में लोगों से हाय-हैल्लो कर हम कुछ देर के लिए लोगों से मिलने की अनुभूति करते हैं लेकिन इसका प्रभाव सेकेंड भर का होता है।
तो हम क्या कर सकते हैं, समय निकालकर हफ्ते में कितने लोगों से मिलें..? यह भी सवाल है ..इसी बीच लोगों से मिलने-जुलने की आदत नहीं छूटे, तो चलिए हम सब मिलते हैं, गपशप करते हैं..कॉफी के बहाने कुछ पल साथ गुजारते हैं.!
भारत आयें तो आपसे मुलाकात हो!! तभी कॉफी भी हो लेगी. :)
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